दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य दीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा। यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभाति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ श्रीकृष्ण विष्णु के रूप में उसी प्रकार विस्तार करते हैं जिस प्रकार एक जलता दीप दूसरे को जलाता है। यद्यपि दोनों दीपकों की शक्ति में कोई अन्तर नहीं होता तथापि श्रीकृष्ण आदि-दीपक के समान हैं। यहाँ मृष्ट-यशसे शब्द महत्त्वपूर्ण है क्योंकि श्रीकृष्ण भक्तों को संकट से छुड़ाने के लिए सदैव प्रसिद्ध हैं। जो भक्त श्रीकृष्ण में पूर्णतया समर्पित होता है और जिसका एकमात्र उद्धारक श्रीकृष्ण रहता है, उसे अकिञ्चन कहते हैं। महारानी कुन्ती ने अपनी स्तुति में भगवान् को अकिञ्चन-वित्त अर्थात् भक्त का धन कहा है। जो बद्ध जीवन के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं, वे वैकुण्ठ लोक को जाते हैं जहाँ उन्हें पाँच प्रकार की मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं—सायुज्य, सालोक्य, सारूप्य, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य। ये रस श्रीकृष्ण से उद्भूत हैं। जैसाकि विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कहा है आदि रस माधुर्य प्रेम है। श्रीकृष्ण शुद्ध और आध्यात्मिक माधुर्य प्रेम के उद्गम हैं। |