भगवद्गीता (४.७) में भगवान् कहते हैं— यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ “हे भरतवंशी! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का प्राधान्य होता है, तब-तब मैं स्वयं अवतरित होता हूँ।” चूँकि भगवान् कृष्ण सबों के नियंत्रक हैं, अतएव वे जब-जब प्रकट होते हैं, तो काल की सीमाओं में बँधे नहीं होते (जन्म कर्म च मे दिव्यम् )। इस श्लोक में कालं चरन्तं सृजतीश आश्रयं पद सूचित करता है कि चाहे सत्त्वगुण का प्राधान्य हो या रजोगुण अथवा तमोगुण का, यद्यपि भगवान् काल के भीतर कार्य करते हैं, किन्तु हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि भगवान् काल के अधीन हैं। काल उनके अधीन है, क्योंकि वे इसका सृजन एक निश्चित विधि से कर्म करने के लिए करते हैं, वे कर्म को काल के नियंत्रण में नहीं करते। भौतिक जगत की सृष्टि तो भगवान् की एक लीला मात्र है। हर वस्तु उनके पूर्ण नियंत्रण में रहती है। चूँकि सृष्टि का जन्म तब होता है जब रजोगुण प्रधान होता है, अतएव भगवान् रजोगुण को सुविधाएँ प्रदान करने के लिए आवश्यक काल की सृष्टि करते हैं। इसी प्रकार वे पालन तथा संहार के लिए आवश्यक कालों का सृजन करते हैं। इस प्रकार यह श्लोक प्रतिपादित करता है कि भगवान् काल की सीमाओं के भीतर नहीं हैं। जैसाकि ब्रह्म-संहिता में कहा गया है—ईश्वर: परम: कृष्ण:—कृष्ण परम नियामक हैं। सच्चिदानन्द विग्रह:—उनका शरीर आनन्दपूर्ण तथा आध्यात्मिक है। अनादि:—वे किसी के भी अधीन नहीं हैं। जैसाकि भगवान् ने भगवद्गीता (७.७) में पुष्टि की है—मत्त: परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय—“हे धन के विजेता (अर्जुन)! कोई भी सत्य मुझसे श्रेष्ठ नहीं।” कोई भी वस्तु कृष्ण से बढक़र नहीं हो सकती, क्योंकि वे प्रत्येक वस्तु के नियंत्रक तथा स्रष्टा हैं। मायावादी दार्शनिकों का कहना है कि यह जगत मिथ्या है, अतएव हमें इस मिथ्या सृष्टि की परवाह नहीं करनी चाहिए (ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या )। किन्तु यह सही नहीं है। यहाँ पर सत्यकृत् कहा गया है अर्थात् सत्यं परम् द्वारा जो भी उत्पन्न किया जाता है, वह मिथ्या नहीं कहा जा सकता। सृष्टि का कारण सत्य है, अतएव कारण का प्रकार्य किस तरह मिथ्या हो सकता है? सत्यकृत् शब्द का व्यवहार ही यह प्रतिपादित करने के लिए किया गया है कि भगवान् द्वारा उत्पन्न प्रत्येक वस्तु वास्तविक है, मिथ्या नहीं। भले ही सृष्टि क्षणिक हो, किन्तु मिथ्या नहीं है। |