विक्रीडि़तं ब्रजवधूभिरिदं च विष्णो: श्रद्धान्वितोऽनुशृणुयादथ वर्णयेद्य:। भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर: ॥ यदि प्रामाणिक श्रोता कृष्ण व गोपियों की लीलाओं को, जो कामपूर्ण सी प्रतीत होती हैं, से सुनता है, तो उसके हृदय की कामवासना, जो बद्धजीव के हृदय रोग का कारण है, विनष्ट हो जाएगी और वह भगवान् का श्रेष्ठ भक्त बन जाएगा। यदि कोई कृष्ण के साथ गोपियों के विषयी आचरण के श्रवण मात्र से विषय-वासनाओं से मुक्त हो जाता है, तो निश्चित रूप से गोपियाँ कृष्ण के पास जाकर ऐसी समस्त इच्छाओं से मुक्त हो गईं। इसी प्रकार शिशुपाल तथा अन्य लोग जो कृष्ण से अत्यधिक ईर्ष्या करते थे और निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करते थे ईर्ष्या से मुक्त हो गये। नन्द महाराज तथा माता यशोदा स्नेह के कारण कृष्णभावनामृत में लीन रहते थे। जब मन किसी न किसी तरह कृष्ण में पूरी तरह लीन रहता है, तो भौतिक अंश तो तुरन्त लुप्त हो जाता है और आध्यात्मिक अंश—कृष्ण का आकर्षण—प्रकट हो जाता है। इससे परोक्षत: यह पुष्टि होती है कि यदि कोई ईर्ष्यावश ही कृष्ण का चिन्तन करता है, तो मात्र चिन्तन करने के कारण वह अपने समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और शुद्ध भक्त बन जाता है। इसके उदाहरण अगले श्लोक में दिये गये हैं। |