अशपन् कुपिता एवं युवां वासं न चार्हथ: ।
रजस्तमोभ्यां रहिते पादमूले मधुद्विष: ।
पापिष्ठामासुरीं योनिं बालिशौ यातमाश्वत: ॥ ३८ ॥
शब्दार्थ
अशपन्—शाप दिया; कुपिता:—क्रोध से भर कर; एवम्—इस प्रकार; युवाम्—तुम दोनों; वासम्—निवास स्थान; न—नहीं; च—तथा; अर्हथ:—योग्य हो; रज:-तमोभ्याम्—रजो तथा तमो गुणों से; रहिते—रहित; पाद-मूले—चरण कमलों पर; मधु द्विष:—मधु असुर का वध करने वाले विष्णु के; पापिष्ठाम्—अत्यन्त पापी; आसुरीम्—आसुरी; योनिम्—योनि में, गर्भ में; बालिशौ—अरे तुम दोनों मूर्ख; यातम्—जाओ; आशु—शीघ्र; अत:—इसलिए ।.
अनुवाद
जय तथा विजय नामक द्वारपालों द्वारा इस प्रकार रोके जाने पर सनन्दन तथा अन्य मुनियों ने क्रोधपूर्वक उन्हें श्राप दे दिया। उन्होंने कहा—“अरे दोनों मूर्ख द्वारपालों, तुम रजो तथा तमो गुणों से क्षुभित होने के कारण मधुद्विष के चरण-कमलों की शरण में रहने के अयोग्य हो, क्योंकि वे ऐसे गुणों से रहित हैं। तुम्हारे लिए श्रेयस्कर होगा कि तुरन्त ही भौतिक जगत में जाओ और अत्यन्त पापी असुरों के परिवार में जन्म ग्रहण करो।”
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥