योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। श्रद्धावान भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: ॥ “समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धा पूर्वक मेरी शरण में रहता है और भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करता है, वह योग में घनिष्ठतापूर्वक मुझसे युक्त रहता है और सर्वोच्च होता है।” योगी का असली उद्देश्य भगवान् कृष्ण पर अपने ध्यान को पूरी तरह केन्द्रित करना और सदैव उन्हीं का चिन्तन करना है (मद्गतेनान्तरात्मना )। ऐसी सिद्धि-लाभ के लिए मनुष्य को हठ योग करना होता है और तब इस योग से अभ्यासकर्ता को किञ्चित अपूर्व योगशक्ति प्राप्त होती है। किन्तु असुरगण कृष्ण के भक्त न बनकर इस योगशक्ति का उपयोग अपनी इन्द्रिय-तृप्ति के लिए करते हैं। उदाहरणार्थ, यहाँ पर मय दानव को महायोगी कहा गया है किन्तु उसका कार्य असुरों की सहायता करना था। आजकल देखा जाता है कि कुछ ऐसे योगी हैं, जो भौतिकतावादियों को इन्द्रियों की तृप्ति कराते हैं और ऐसे वञ्चक हैं, जो अपने आपको ईश्वर के रूप में विज्ञापित करते हैं। मय दानव ऐसा ही व्यक्ति था, जो असुरों का देवता था और वह कुछ आश्चर्यजनक करामातें कर सकता था जिनमें से एक का वर्णन यहाँ हुआ है— उसने अमृत से पूर्ण एक कुँआ बनाया और असुरों को लाकर उसी में डाल दिया। यह अमृत मृत सञ्जीवयितरि कहलाता था, क्योंकि इससे मृत शरीर जीवित हो सकता था। मृतसञ्जीवयितरि एक आयुर्वेदिक दवा भी है। यह एक प्रकार का आसव है, जो मरणासन्न व्यक्ति में जीवन ला देता है। |