श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 11: पूर्ण समाज: चातुर्वर्ण  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  7.11.24 
शूद्रस्य सन्नति: शौचं सेवा स्वामिन्यमायया ।
अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्यं गोविप्ररक्षणम् ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
शूद्रस्य—शूद्र (समाज के चतुर्थ वर्ण, श्रमिक) का; सन्नति:—उच्च वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) के प्रति आज्ञाकारिता; शौचम्—पवित्रता; सेवा—सेवाभाव; स्वामिनि—अपने पालने वाले स्वामी के प्रति; अमायया—द्विविधता के बिना; अमन्त्र यज्ञ:—बिना मंत्रों के यज्ञ करना; हि—ही; अस्तेयम्—चोरी न करने का अभ्यास; सत्यम्—सत्य; गो—गाय; विप्र—ब्राह्मण की; रक्षणम्—रक्षा ।.
 
अनुवाद
 
 समाज के उच्च वर्णों (ब्राह्मणों, क्षत्रिय तथा वैश्यों) को नमस्कार करना, सदैव स्वच्छ रहना, द्वैतभाव से मुक्त रहना, अपने स्वामी की सेवा करना, मंत्र पढ़े बिना यज्ञ करना, चोरी न करना, सदा सत्य बोलना तथा गायों एवं ब्राह्मणों को सदा संरक्षण प्रदान करना—ये शूद्र के लक्षण हैं।
 
तात्पर्य
 यह आम अनुभव है कि श्रमिक या नौकर सामान्यतया चोरी करने के आदि होते हैं। किन्तु प्रथम श्रेणी का नौकर वह है, जो चोरी नहीं करता। यहाँ यह संस्तुति की गई है कि प्रथम श्रेणी के शूद्र को सदैव स्वच्छ रहना चाहिए, चोरी नहीं करनी चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए और सदैव अपने स्वामी की सेवा करनी चाहिए। शूद्र यज्ञों तथा वैदिक अनुष्ठानों में अपने स्वामी के साथ उपस्थित रह सकता है, लेकिन उसे मंत्रोच्चार नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह केवल उच्चवर्ण वाले ही यह कर सकते हैं। जब तक कोई पूर्णत: शुद्ध न हो तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य के स्तर को प्राप्त न हो चुका हो—अर्थात् द्विज न हो—तब तक मंत्रोच्चार सफल नहीं होता।
 
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