वृत्ति: सङ्करजातीनां तत्तत्कुलकृता भवेत् ।
अचौराणामपापानामन्त्यजान्तेवसायिनाम् ॥ ३० ॥
शब्दार्थ
वृत्ति:—वृत्तिपरक कर्तव्य; सङ्कर-जातीनाम्—मिश्रित वर्णों के लोगों का (चारों वर्णों के अतिरिक्त); तत्-तत्—वे-वे; कुल- कृता—पारिवारिक परम्परा; भवेत्—हो; अचौराणाम्—जो वृत्ति से चोर नहीं हैं; अपापानाम्—जो पापी नहीं हैं; अन्त्यज— निम्न वर्ग के; अन्तेवसायिनाम्—अन्तेवसायी या चाण्डाल नाम से ज्ञात ।.
अनुवाद
संकर जातियों में से जो चोर नहीं होते वे अन्तेवसायी या चण्डाल (कुत्ता खाने वाले) कहलाते हैं और उनके कुल में चले आने वाले रीति-रिवाजों को होते हैं।
तात्पर्य
समाज के चार प्रधान वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र—की परिभाषा दी जा चुकी है और अब मिश्रित वर्ण अन्त्यज का विवरण दिया जा रहा है। मिश्रित वर्णों में दो विभाग हैं— प्रतिलोमज तथा अनुलोमज। यदि उच्च जाति की स्त्री निम्न जाति के पुरुष से विवाह करती है, तो उनका यह संयोग प्रतिलोम कहलाता है। किन्तु यदि निम्न जाति की स्त्री उच्च जाति के पुरुष से विवाह करती है, तो यह संयोग अनुलोम कहलाता है। ऐसे वंशों के सदस्य ताई, धोबी जैसे परम्परागत कर्म करते हैं। अन्त्यजों में जो कुछ-कुछ शुद्ध होते हैं—न चोरी करते हैं और न मांसाहार तथा मद्यपान करते हैं, न अवैध मैथुन करते हैं, न जुआ खेलते हैं—वे अन्तेवसायी कहलाते हैं। निम्न जातियों में अन्तर्जातीय विवाह तथा मद्यपान की छूट रहती है, क्योंकि ये लोग ऐसे आचरण को पापपूर्ण नहीं मानते।
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