श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 11: पूर्ण समाज: चातुर्वर्ण  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  7.11.32 
वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमान: स्वकर्मकृत् ।
हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
वृत्त्या—वृत्ति से; स्व-भाव-कृतया—अपने भौतिक गुणों के अनुसार किया गया; वर्तमान:—विद्यमान; स्व-कर्म-कृत्— अपना-अपना कार्य करते हुए; हित्वा—त्याग कर; स्व-भाव-जम्—अपने ही गुणों से उत्पन्न; कर्म—कार्य; शनै:—धीरे-धीरे; निर्गुणताम्—दिव्य स्थिति; इयात्—प्राप्त कर सकता है ।.
 
अनुवाद
 
 यदि कोई अपनी प्रकृति जन्य भौतिक स्थिति के अनुसार अपना वृत्तिपरक कार्य करता है तथा धीरे-धीरे इन कार्यों को छोड़ देता है, तो उसे निष्काम अवस्था प्राप्त हो जाती है।
 
तात्पर्य
 यदि कोई अपने कुल के रिवाजों तथा कर्तव्यों को धीरे-धीरे छोडक़र अपनी स्वाभाविक स्थिति में भगवान् की सेवा करने का प्रयास करता है, तो वह अपने कर्मों से क्रमश: मुक्त हो जाता है और निष्काम अवस्था अर्थात् भौतिक इच्छाओं से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥