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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 11: पूर्ण समाज: चातुर्वर्ण  »  श्लोक 33-34
 
 
श्लोक  7.11.33-34 
उप्यमानं मुहु: क्षेत्रं स्वयं निर्वीर्यतामियात् ।
न कल्पते पुन: सूत्यै उप्तं बीजं च नश्यति ॥ ३३ ॥
एवं कामाशयं चित्तं कामानामतिसेवया ।
विरज्येत यथा राजन्नग्निवत् कामबिन्दुभि: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
उप्यमानम्—इस प्रकार जोतने से; मुहु:—पुन:-पुन:; क्षेत्रम्—खेत; स्वयम्—अपने आप; निर्वीर्यताम्—बंजर; इयात्—हो जाता है; न कल्पते—उपयुक्त नहीं है; पुन:—फिर; सूत्यै—अगली फसल उगाने के लिए; उप्तम्—बोया गया; बीजम्—बीज; — तथा; नश्यति—नष्ट हो जाता है; एवम्—इस प्रकार; काम-आशयम्—कामेच्छाओं से पूर्ण; चित्तम्—अन्त:करण; कामानाम्— वांछित वस्तुओं के; अति-सेवया—बारम्बार भोग के कारण; विरज्येत—विरक्त हो सकता है; यथा—जिस तरह; राजन्—हे राजा; अग्नि-वत्—अग्नि; काम-बिन्दुभि:—घी की छोटी-छोटी बूँदों से ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, यदि कोई खेत को बारम्बार जोता-बोया जाता है, तो उसकी उत्पादन शक्ति घट जाती है और जो भी बीज बोये जाते हैं वे नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार घी की एक एक बूँद डालने से अग्नि कभी नहीं बुझती अपितु घी की धारा से वह बुझ जाएगी उसी प्रकार विषयवासना में अत्यधिक लिप्त होने पर ऐसी इच्छाएँ पूरी तरह नष्ट हो जाती हैं।
 
तात्पर्य
 यदि कोई अग्नि में निरन्तर बूँद-बूँद घी छिडक़े तो अग्नि नहीं बुझेगी, किन्तु यदि ढेर सारा घी उड़ेल दिया जाये तो अग्नि सम्भवत: पूरी तरह बुझ जाए। इसी प्रकार जो अधिक पापी हैं और निम्न जाति में उत्पन्न हैं उन्हें जी भर कर पाप करने दिया जाता है, क्योंकि सम्भव है कि वे इन कार्यों से ऊब कर उन्हें शुद्ध बनने का अवसर पा सकें।
 
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