श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 11: पूर्ण समाज: चातुर्वर्ण  »  श्लोक 8-12
 
 
श्लोक  7.11.8-12 
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम: ।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम् ॥ ८ ॥
सन्तोष: समद‍ृक्सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै: ।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम् ॥ ९ ॥
अन्नाद्यादे: संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत: ।
तेष्वात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव ॥ १० ॥
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते: ।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम् ॥ ११ ॥
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत: ।
त्रिंशल्लक्षणवान् राजन्सर्वात्मा येन तुष्यति ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
सत्यम्—बिना तोड़े-मरोड़े सत्य का भाषण; दया—प्रत्येक दुखी व्यक्ति पर सहानुभूति; तप:—तपस्या (यथा एकादशी के दिन मास में दो बार उपवास करना); शौचम्—स्वच्छता (दिन में दो बार, सुबह-शाम, नियमित रूप से स्नान करना तथा भगवान् के नाम का जप करना याद रखना); तितिक्षा—सहनशक्ति (ऋतु परिवर्तनों या असुविधाजनक परिस्थितियों में भी अक्षुब्ध रहना); ईक्षा—सद्-असद् में अन्तर करना; शम:—मन का संयम (मन को मनमाना कार्य न करने देना); दम:—इन्द्रियों का संयम (इन्द्रियों को असंयमित न होने देना); अहिंसा—अहिंसा (किसी जीव को तीन प्रकार के तापों से पीडि़त न होने देना); ब्रह्मचर्यम्—अपने वीर्य का दुरुपयोग न होने देना (अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री से संभोग न करना तथा वर्जित अवसरों पर यथा मासिक धर्म के अवसर पर पत्नी के साथ संभोग न करना); च—तथा; त्याग:—अपनी आय का कम से कम पचास प्रतिशत दान में देना; स्वाध्याय:—भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत, रामायण, महाभारत जैसे दिव्य ग्रंथों का पठन (अथवा जो वैदिक संस्कृति के लोग नहीं हैं, उनके द्वारा बाइबिल या कुरान का पठन); आर्जवम्—सादगी(मानसिक द्वन्द्व से मुक्ति); सन्तोष:—कठिन प्रयास के बिना जो भी उपलब्ध हो उसी में सन्तुष्ट रहना; समदृक्-सेवा—उन साधु पुरुषों की सेवा करना जो एक जीव तथा दूसरे जीव में अन्तर नहीं करते तथा जो प्रत्येक जीव को आत्मा के रूप में देखते हैं (पण्डिता: समदर्शिन:); ग्राम्य-ईह-उपरम:—तथाकथित परोपकारी कार्यों में भाग न लेते हुए; शनै:—धीरे-धीरे; नृणाम्—मानव समाज में; विपर्यय- ईहा—अनावश्यक कार्य; ईक्षा—वाद-विवाद; मौनम्—गम्भीर तथा शान्त रहना; आत्म—अपने में; विमर्शनम्—शोध (यह कि मनुष्य शरीर है या आत्मा); अन्न-आद्य-आदे:—अन्न, पेय आदि का; संविभाग:—समान वितरण; भूतेभ्य:—विभिन्न जीवों के लिए; च—भी; यथा-अर्हत:—अनुकूल; तेषु—सारे जीवों में; आत्म-देवता-बुद्धि:—आत्मा या देवताओं के रूप में स्वीकार करना; सुतराम्—प्रारम्भिक रूप से; नृषु—सारे मनुष्यों में; पाण्डव—हे महाराज युधिष्ठिर; श्रवणम्—सुनना; कीर्तनम्—कीर्तन करना; च—भी; अस्य—उस (भगवान) का; स्मरणम्—स्मरण करना (भगवान् के शब्दों तथा कार्यों का); महताम्— महापुरुषों का; गते:—आश्रय स्वरूप; सेवा—सेवा; इज्या—पूजा; अवनति:—नमस्कार करना; दास्यम्—सेवा करना; सख्यम्—मित्र मानना; आत्म-समर्पणम्—अपना सब कुछ अर्पित कर देना; नृणाम्—सारे मनुष्यों का; अयम्—यह; पर:—सर्वश्रेष्ठ; धर्म:—धार्मिक सिद्धान्त; सर्वेषाम्—सबों में; समुदाहृत:—पूर्णतया वर्णित; त्रिंशत्-लक्षण-वान्—तीस लक्षणों से युक्त; राजन्—हे राजा; सर्व-आत्मा—सबों का परमात्मा; येन—जिससे; तुष्यति—तुष्ट होता है ।.
 
अनुवाद
 
 सभी मनुष्यों को जिन सामान्य नियम का पालन करना होता है, ये हैं—सत्य, दया, तपस्या, (महीने में कुछ दिन उपवास करना), दिन में दो बार स्नान, सहनशीलता, अच्छे बुरे का विवेक, मन का संयम, इन्द्रिय संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, दान, शास्त्रों का अध्ययन, सादगी, सन्तोष, साधु पुरुषों की सेवा, अनावश्यक कार्यों से क्रमश: अवकाश लेना, मानव समाज के अनावश्यक कार्यों की व्यर्थता समझना, गम्भीर तथा शान्त बने रहना एवं व्यर्थ की बातें करने से बचना, मनुष्य शरीर या इस आत्मा के विषय में विचार करना, सभी जीवों (पशुओं तथा मनुष्यों) में अन्न का समान वितरण करना, प्रत्येक आत्मा को (विशेषतया मनुष्य को) परमेश्वर का अंश मानना, भगवान् के कार्यकलापों तथा उनके उपदेशों को सुनना (भगवान् साधु पुरुषों के आश्रय हैं), इन कार्यों तथा उपदेशों का कीर्तन करना, इनका नित्य स्मरण करना, सेवा करने का प्रयास, पूजा करना, नमस्कार करना, दास बनना, मित्र बनना और आत्म-समर्पण करना। हे राजा युधिष्ठिर, मनुष्य जीवन में इन तीस गुणों को अर्जित करना चाहिए। मनुष्य इन गुणों को अर्जित करने मात्र से भगवान् को प्रसन्न कर सकता है।
 
तात्पर्य
 मनुष्यों को पशुओं से अलग समझने के लिए नारद मुनि ने संस्तुति की है कि प्रत्येक मनुष्य उपर्युक्त तीस गुणों की शिक्षा प्राप्त करे। आज-कल पूरे विश्व में सर्वत्र ही धर्मनिरपेक्ष राज्य का विज्ञापन किया जा रहा है, जो ऐसा राज्य है, जिसकी रुचि केवल सांसारिक कार्यों में होगी। किन्तु यदि राज्य के नागरिकों को उपर्युक्त सद्गुणों की शिक्षा नहीं दी जाती तो फिर सुख कैसे प्राप्त होगा? उदाहरणार्थ, यदि सारे लोग असत्यवादी हो जाँय तो राज्य कैसे सुखी रह सकेगा? अतएव चाहे कोई हिन्दू हो या मुसलमान, ईसाई हो या बौद्ध अथवा अन्य किसी सम्प्रदाय का हो, हर एक को सत्यवादी बनने की शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी प्रकार हर एक को दयालु बनने तथा महीने में कुछ दिन उपवास करने की शिक्षा दी जानी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को दिन में दो बार नहाना चाहिए, अपने दाँतों को तथा शरीर को स्वच्छ रखना चाहिए और भगवान् के पवित्र नाम का स्मरण करके मन को आन्तरिक रूप से विमल बनाना चाहिए। ईश्वर एक है, चाहे कोई हिन्दू हो, मुसलमान हो या ईसाई। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह भाषा सम्बन्धी उच्चारण की भिन्नता की परवाह न करके भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करे। साथ ही मनुष्य को व्यर्थ ही वीर्य स्खलित न करने की शिक्षा दी जानी चाहिए। यह सभी मनुष्यों के लिए नितान्त आवश्यक है। व्यर्थ में वीर्य स्खलन न होने से मनुष्य की स्मृति, संकल्प, क्रियाशीलता तथा शारीरिक शक्ति अत्यन्त प्रबल बनती है। प्रत्येक व्यक्ति को विचार तथा अनुभूति में सरल रहने और शरीर तथा मन से संतुष्ट रहने की शिक्षा दी जानी चाहिए। ये मनुष्य के सामान्य गुण हैं। इसमें धर्मनिरपेक्ष या धार्मिक राज्य का प्रश्न ही नहीं उठता। जब तक मनुष्य को इन तीस गुणों की शिक्षा नहीं दी जाती तब तक शान्ति नहीं हो सकती। अन्ततोगत्वा इस प्रकार संस्तुति की जाती है—

श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।

सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यं आत्मसमर्पणम् ॥

हर एक व्यक्ति को भगवान् का भक्त बन जाना चाहिए, क्योंकि भक्त बनने पर मनुष्य को अन्य सारे गुण स्वत: प्राप्त हो जाएँगे।

यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुरा:।

हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा मनोरथेनासति धावतो बहि: ॥

“जिसमें कृष्ण की अविचल भक्ति है उसमें कृष्ण तथा देवताओं के सारे सद्गुण निरन्तर प्रकट होते रहते हैं। किन्तु जिसकी अनुरक्ति भगवान् में नहीं है उसमें सद्गुण नहीं होते, क्योंकि वह मनोरथ द्वारा भौतिक जगत में लगा रहता है, जो भगवान् का बाह्य रूप है।” (भागवत ५.१८.१२) अतएव हमारा कृष्णभावनामृत आन्दोलन सबों को गले लगाने वाला है। मानव सभ्यता को चाहिए कि इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करे और विश्व शान्ति के लिए इन नियमों का अभ्यास करे।

 
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