यश्चित्तविजये यत्त: स्यान्नि:सङ्गोऽपरिग्रह: ।
एको विविक्तशरणो भिक्षुर्भैक्ष्यमिताशन: ॥ ३० ॥
शब्दार्थ
य:—जो; चित्त-विजये—मन को जीतकर; यत्त:—लगा रहता है; स्यात्—हो; नि:सङ्ग:—दूषित संगति से रहित; अपरिग्रह:— आश्रित न रहकर (परिवार पर); एक:—अकेले; विविक्त-शरण:—एकान्त स्थान की शरण लेकर; भिक्षु:—संन्यासी; भैक्ष्य—केवल शरीर पालन के लिए भीख माँग कर; मित-अशन:—कम खाने वाला ।.
अनुवाद
जो मन पर विजय पाने का इच्छुक हो उसे अपने परिवार का साथ छोड़ते हुए दूषित संगित से मुक्त एकान्त स्थान में रहना चाहिए। अपने शरीर-पोषण के लिए उसे उतना ही माँगना चाहिए जितने से जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी हो जायँ।
तात्पर्य
मन की चंचलता को जीतने की यही विधि है। मनुष्य को सलाह दी जाती है कि वह अपना परिवार त्याग कर अकेले रहे और भीख माँग कर जीवन निर्वाह करे तथा उतना ही भोजन करे जितने से वह जीवित रहा जा सके। ऐसी विधि के बिना कामेच्छाओं पर विजय नहीं पाई जा सकती। संन्यास का अर्थ है भिक्षा वृत्ति स्वीकार करना जिससे मनुष्य स्वत: विनम्र तथा कामेच्छा से मुक्त हो जाता है। इस प्रसंग में स्मृति का निम्नलिखित श्लोक द्रष्टव्य है—
द्वन्द्वाहतस्य गार्हस्थ्यं ध्यानभङ्गादिकारणम्।
लक्षयित्वा गृही स्पष्टं संन्यसेद् अविचारयन् ॥
द्वन्द्वयुक्त इस जगत में पारिवारिक जीवन ही वह कारण है, जिससे मनुष्य का आध्यात्मिक जीवन या ध्यान नष्ट होता है। इस तथ्य को विशेष तौर पर समझते हुए मनुष्य को नि:संकोच संन्यास आश्रम स्वीकार करना चाहिए।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥