वदन्ति तत् तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवान् इति शब्द्यते ॥ “जो विद्वान अध्यात्मवादी परम सत्य को जानते हैं, वे इस अद्वैत वस्तु को ब्रह्म, परमात्मा या भगवान् कहकर पुकारते हैं।” जब तक कोई भगवान् के विषय में पूर्णत: आश्वस्त नहीं हो जाता, उसके अपने हृदय के भीतर परमात्मा को ढूँढ़ते हुए निर्विशेष योगी बननेकी सम्भावना होती है (ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिन:)। यहाँ पर ओङ्कार जप की संस्तुति की गई है, क्योंकि दिव्य अनुभूति के प्रारम्भ में हरे कृष्ण महामंत्र का जाप न करके मनुष्य ओङ्कार (प्रणव) का जाप कर सकता है। हरे कृष्ण महामंत्र तथा ओङ्कार में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों ही भगवान् की ध्वनि-अभिव्यक्तियाँ हैं। प्रणव: सर्ववेदेषु। समस्त वैदिक वाङ्मय में ओङ्कार ध्वनि ही शुभारम्भ है (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय )। ओङ्कार के जप तथा हरे कृष्ण मंत्र के जप में यही अन्तर है कि हरे कृष्ण मंत्र का जप स्थान या आसन का विचार किये बिना किया जा सकता है, जिसकी संस्तुति भगवद्गीता (६.११) में की गई है— शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन:। नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ “योगाभ्यास के लिए मनुष्य को एकान्त स्थान में जाना चाहिए और भूमि पर कुश बिछाकर उसके ऊपर मृगचर्म तथा मुलायम कपड़ा डाल देना चाहिए। आसन न तो अधिक ऊँचा हो न अधिक नीचा। इसे पवित्र स्थान में होना चाहिए।” हरे कृष्ण मंत्र को कोई भी व्यक्ति स्थान या आसन का विचार किये बिना जप सकता है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्पष्ट कहा है—नियमित: स्मरणे न काल:। हरे कृष्ण महामंत्र के जप करने के लिए आसन के विषय में कोई विशिष्ट आदेश नहीं है। नियमत: स्मरणे न काल: नामक आदेश में देश, काल तथा पात्र सभी समाविष्ट हैं। अतएव कोई भी व्यक्ति देश तथा काल का ध्यान रखे बिना हरे कृष्ण मंत्र का जप कर सकता है। विशेषतया इस कलियुग में भगवद्गीता द्वारा संस्तुत उपयुक्त स्थान खोज पाना कठिन है। किन्तु हरे कृष्ण महमंत्र का जप किसी भी स्थान में और किसी भी समय किया जा सकता है और इससे तुरन्त ही फल मिलता है। फिर भी हरे कृष्ण मंत्र का जप करते हुए विधि-विधानों का पालन किया जा सकता है। अत: जप के समय शरीर को सीधा रखा जाये। इससे जापक को सहायता मिलेगी अन्यथा उसे नींद आ सकती है। |