य: प्रव्रज्य गृहात्पूर्वं त्रिवर्गावपनात्पुन: ।
यदि सेवेत तान्भिक्षु: स वै वान्ताश्यपत्रप: ॥ ३६ ॥
शब्दार्थ
य:—जो; प्रव्रज्य—वन जाकर (दिव्य सुख में स्थिर होकर); गृहात्—घर से; पूर्वम्—सर्वप्रथम; त्रि-वर्ग—धर्म, अर्थ तथा काम, ये तीन सिद्धान्त; आवपनात्—बोये गये खेत में से; पुन:—फिर; यदि—यदि; सेवेत—स्वीकार करना चाहिए; तान्— भौतिकतावादी कार्यकलापों को; भिक्षु:—संन्यासी; स:—वह पुरुष; वै—निस्सन्देह; वान्त-आशी—वमन करके खाने वाला; अपत्रप:—लज्जारहित, निर्लज्ज ।.
अनुवाद
जो संन्यास आश्रम स्वीकार करता है, वह धर्म, अर्थ तथा काम इन तीन भौतिकतावादी कार्यकलापों के सिद्धान्तों को छोड़ देता है, जिनमें मनुष्य गृहस्थ जीवन में लिप्त रहता है। जो व्यक्ति पहले संन्यास स्वीकार करता है, किन्तु बाद में ऐसी भौतिकतावादी क्रियाओं में लौट आता है, वह वान्ताशी अर्थात् अपनी ही वमन को खाने वाला कहलाता है। निस्सन्देह, वह निर्लज्ज व्यक्ति है।
तात्पर्य
सारे भौतिकतावादी कार्यकलापों का नियमन वर्णाश्रम धर्म संस्थान द्वारा होता है। वर्णाश्रम धर्म के बिना सारे भौतिकतावादी कार्यकलाप पशु-जीवन की सृष्टि करते हैं। मनुष्य-जीवन में वर्ण तथा आश्रम—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास—के नियमों का पालन करते हुए मनुष्य को अन्ततोगत्वा संन्यास स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि संन्यास आश्रम में ही मनुष्य ब्रह्मसुख में स्थित हो सकता है। ब्रह्मसुख में मनुष्य कामेच्छाओं से आकृष्ट नहीं होता। जब कोई मैथुन की कामेच्छा से विचलित नहीं होता तो वह संन्यासी
बनने के लिए उपयुक्त है, अन्यथा संन्यास ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि कोई अपरिपक्व अवस्था में संन्यास ग्रहण करे तो सम्भावना रहती है कि वह स्त्रियों से तथा कामेच्छाओं से आकर्षित हो जाए और पुन: तथाकथित गृहस्थ बन जाये। ऐसा व्यक्ति अत्यन्त निर्लज्ज होता है और वान्ताशी कहलाता है—ऐसा व्यक्ति जो उगले हुए को खाता है। वह निश्चय ही निन्दनीय जीवन बिताता है। अतएव हमारे कृष्णभावनामृत आन्दोलन में यह सलाह दी जाती है कि संन्यासी तथा ब्रह्मचारी स्त्री-संगति से दूर रहें जिससे कामेच्छाओं का शिकार होकर पतित होने की सम्भावना न रह जाये।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥