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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 15: सुसंस्कृत मनुष्यों के लिए उपदेश  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  7.15.4 
देशकालोचितश्रद्धाद्रव्यपात्रार्हणानि च ।
सम्यग्भवन्ति नैतानि विस्तरात्स्वजनार्पणात् ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
देश—स्थान; काल—समय; उचित—उचित; श्रद्धा—आदर; द्रव्य—अवयव; पात्र—उपयुक्त व्यक्ति; अर्हणानि—पूजा सामग्री; —तथा; सम्यक्—उचित; भवन्ति—हैं; —नहीं; एतानि—ये सब; विस्तरात्—विस्तार के कारण; स्व-जन-अर्पणात्— अथवा सम्बन्धियों को आमंत्रित करने से ।.
 
अनुवाद
 
 यदि कोई श्राद्ध कर्म के समय अनेक ब्राह्मणों या सम्बन्धियों को भोजन कराने की व्यवस्था करता है, तो काल, देश, श्राद्ध, पदार्थ, पात्र और पूजन विधि में त्रुटियाँ होंगी।
 
तात्पर्य
 नारद मुनि ने श्राद्ध कर्म के अवसर पर सम्बन्धियों या ब्राह्मणों को खिलाने के लिए व्यर्थ वृहद् आयोजन करने का निषेध किया है। जो लोग भौतिक दृष्टि से ऐश्वर्यवान हैं, वे इस उत्सव में दिल खोलकर खर्च करते हैं। भारतवासी विशेष रूप से तीन अवसरों पर—सन्तान के जन्म पर, विवाह पर तथा श्राद्ध कर्म पर—दिल खोलकर खर्च करते हैं, लेकिन श्राद्ध कर्म के समय अनेक ब्राह्मणों एवं सम्बन्धियों को आमंत्रित करने में अत्यधिक व्यय करने के लिए शास्त्र मना करते हैं।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥