यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ “हे कुन्तीपुत्र! तुम जो भी करो, जो भी खाओ, जो भी आहुति दो तथा दान में दो तथा जो भी तपस्या करो वह सब मुझे भेंट रूप में समर्पित होनी चाहिए।” हम जो भी करते हैं, जो भी खाते हैं, जो भी सोचते तथा जो भी योजना बनाते हैं, यदि वह सब कृष्णभावनामृत आन्दोलन की प्रगति के लिए हो तो यह अद्वैत है। कृष्ण के नाम-कीर्तन तथा कृष्णभावनामृत के लिए कार्य करने में कोई अन्तर नहीं है। दिव्य पद पर ये एक हैं। किन्तु इस अद्वैत के विषय में हमें अपने गुरु से मार्ग-दर्शन प्राप्त करना चाहिए; हमें अपनी अद्वैतता नहीं बनानी चाहिए। |