एष आत्मविपर्यासो ह्यलिङ्गे लिङ्गभावना ।
एष प्रियाप्रियैर्योगो वियोग: कर्मसंसृति: ॥ २५ ॥
सम्भवश्च विनाशश्च शोकश्च विविध: स्मृत: ।
अविवेकश्च चिन्ता च विवेकास्मृतिरेव च ॥ २६ ॥
शब्दार्थ
एष:—यह; आत्म-विपर्यास:—जीवन का मोह; हि—निस्सन्देह; अलिङ्गे—भौतिक शरीरविहीन में; लिङ्ग-भावना—भौतिक शरीर को ही आत्मा मानना; एष:—यह; प्रिय—अत्यन्त प्रियों के साथ; अप्रियै:—तथा अप्रियों के साथ (शत्रुओं, परिवार के बाहर वालों के साथ); योग:—सम्बन्ध; वियोग:—वियोग; कर्म—कर्मफल; संसृति:—जीवन की भौतिक दशा; सम्भव:— जन्म स्वीकार करते हुए; च—तथा; विनाश:—मृत्यु स्वीकार करते हुए; च—तथा; शोक:—शोक; च—तथा; विविध:— अनेक प्रकार के; स्मृत:—शास्त्रवर्णित; अविवेक:—विवेक-शक्ति का अभाव; च—तथा; चिन्ता—चिन्ता; च—भी; विवेक—समुचित विवेक शक्ति का; अस्मृति:—विस्मरण होना; एव—निस्संदेह; च—भी ।.
अनुवाद
मोहावस्था में जीव अपने शरीर तथा मन को आत्मा स्वीकार करके कुछ व्यक्तियों को अपना सगा सम्बन्धी और अन्यों को बाहरी लोग मानने लगता है। इस भ्रान्ति के कारण उसे कष्ट भोगना पड़ता है। निस्सन्देह, ऐसे मनोभावों का संचय ही सांसारिक दुख और तथाकथित सुख का कारण बनता है। इस प्रकार स्थित होकर बद्धजीव को विभिन्न योनियों में जन्म लेना होता है और विभिन्न चेतनाओं में कर्म करना पड़ता है, जिससे नवीन शरीरों की उत्पत्ति होती है। यह सतत भौतिक जीवन संसार कहलाता है। जन्म, मृत्यु, शोक, मूर्खता तथा चिन्ता—ये सब ऐसे भौतिक विचारों के कारण होते हैं। इस तरह हम कभी उचित ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो कभी जीवन की भ्रान्त धारणा के पुन: शिकार बनते हैं।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥