श्रीब्रह्मोवाच
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते तप:सिद्धोऽसि काश्यप ।
वरदोऽहमनुप्राप्तो व्रियतामीप्सितो वर: ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
श्री-ब्रह्मा उवाच—ब्रह्माजी ने कहा; उत्तिष्ठ—उठो; उत्तिष्ठ—उठो; भद्रम्—कल्याण हो; ते—तुम्हारा; तप:-सिद्ध:—तपस्या करने में पूर्ण; असि—तुम हो; काश्यप—हे कश्यप पुत्र; वर-द:—वर देने वाला; अहम्—मैं; अनुप्राप्त:—आया हूँ; व्रियताम्—माँग लो; ईप्सित:—वांछित; वर:—वरदान ।.
अनुवाद
ब्रह्माजी ने कहा : हे कश्यप मुनि के पुत्र, उठो, उठो, तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपनी तपस्या में सिद्ध हो चुके हो, अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ। तुम मुझसे जो चाहे सो माँग सकते हो और मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करने का प्रयत्न करूँगा।
तात्पर्य
श्रील मध्वाचार्य ने स्कंद पुराण से उद्धरण दिया है, जिसके अनुसार हिरण्यकशिपु हिरण्यगर्भ कहलाने वाले ब्रह्माजी का भक्त बनकर तथा उन्हें प्रसन्न करने के लिए कठिन तपस्या करके स्वयं हिरण्यक
भी कहलाता है। राक्षस तथा असुरगण ब्रह्मा तथा शिव जैसे विविध देवताओं की पूजा इन देवताओं का स्थान ग्रहण करने के लिए करते हैं। इसकी व्याख्या हम पिछले श्लोकों में कर चुके हैं।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥