महाराज युधिष्ठिर ने आगे पूछा : भला एक पिता के लिए यह कैसे सम्भव हुआ कि वह अपने आज्ञाकारी, सदाचारी तथा पिता का सम्मान करने वाले पुत्र के प्रति इतना उग्र बना? हे ब्राह्मण, हे स्वामी, मैंने कभी ऐसा विरोधाभास नहीं सुना कि कोई वत्सल पिता अपने नेक पुत्र को मार डालने के उद्देश्य से उसे दण्डित करे। कृपा करके इस सम्बन्ध में मेरे संशयों को दूर कीजिए।
तात्पर्य
मानव समाज के इतिहास में विरले ही कोई वत्सल पिता अपने नेक तथा भक्त पुत्र को दण्डित करता पाया गया है। अतएव महाराज युधिष्ठिर नारद मुनि से अपने इस संशय को दूर कराना चाहते थे।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कंध के अन्तर्गत “ब्रह्माण्ड में हिरण्यकशिपु का आतंक” नामक चौथे अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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