श्रीनारद उवाच
एवं दैत्यसुतै: पृष्टो महाभागवतोऽसुर: ।
उवाच तान्स्मयमान: स्मरन् मदनुभाषितम् ॥ १ ॥
शब्दार्थ
श्री-नारद: उवाच—महान् सन्त नारद मुनि ने कहा; एवम्—इस प्रकार; दैत्य-सुतै:—दैत्य को पुत्रों द्वारा; पृष्ट:—पूछे जाने पर; महा-भागवत:—भगवान् के महान् भक्त ने; असुर:—दैत्यों के वंश में उत्पन्न; उवाच—कहा; तान्—उनसे (असुर पुत्रों से); स्मयमान:—हँसते हुए; स्मरन्—स्मरण करते हुए; मत्-अनुभाषितम्—मेरे द्वारा कहा गया ।.
अनुवाद
नारद मुनि ने कहा : यद्यपि प्रह्लाद महाराज असुरों के परिवार में जन्मे थे, किन्तु वे समस्त भक्तों में सबसे महान् थे। इस प्रकार अपने असुर सहपाठियों द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने मेरे द्वारा कहे गये शब्दों का स्मरण किया और अपने मित्रों से इस प्रकार कहा।
तात्पर्य
जब प्रह्लाद महाराज अपनी माता के गर्भ में थे तो उन्होंने नारद मुनि के शब्द सुने थे। कोई इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि गर्भस्थ बालक ने किस तरह नारद के शब्द सुने होंगे, किन्तु यह आध्यात्मिक जीवन है। आध्यात्मिक जीवन की प्रगति को कोई भी भौतिक दशा
रोक नहीं सकती। यह अहैतुक्यप्रतिहता कहलाती है। आध्यात्मिक ज्ञान के अर्जन को कोई भी भौतिक दशा रोक नहीं पाती। इस तरह प्रह्लाद महाराज बचपन से ही अपने मित्रों को अध्यात्म-ज्ञान बतलाते रहे। इसका प्रभाव भी पड़ता रहा, यद्यपि वे सभी बालक थे।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥