भक्तियोग का अभ्यास करने के पूर्व प्रामाणिक गुरु स्वीकार करना चाहिए। श्रील रूप गोस्वामी अपने भक्तिरसामृत सिन्धु (१.२.७४-७५) में उपदेश दिया है— गुरुपादाश्रयस्तस्मात् कृष्णदीक्षादिशिक्षणम्। विश्रम्भेण गुरो: सेवा साधुवर्त्मानुवर्तनम् ॥ सद्धर्म पृच्छा भोगादित्याग: कृष्णस्य हेतवे। मनुष्य का पहला कर्तव्य है कि प्रामाणिक गुरु स्वीकार करे। छात्र या शिष्य को अत्यन्त जिज्ञासु होना चाहिए, उसे सनातन धर्म के विषय में पूर्ण सत्य जानने के लिए उत्सुक रहना चाहिए। गुरु शुश्रूषया शब्दों का अर्थ है कि वह स्वयं गुरु को शारीरिक सुविधाएँ प्रदान करके जैसे स्नान करते, वस्त्र बदलते, सोते, खाते समय सहायता पहुँचा कर उनकी सेवा करे। यह गुरु शुश्रूषणम् कहलाता है। शिष्य दास की भाँति गुरु की सेवा करे और उसके पास जो कुछ भी हो उसे गुरु को समार्पित कर दे। प्राणै: अर्थैर्धिया वाचा। प्रत्येक व्यक्ति के पास जीवन, सम्पत्ति, बुद्धि तथा वाणी होती है और इन सबों को गुरु के माध्यम से भगवान् को अर्पित कर देना चाहिए। गुरु को सब कुछ कर्तव्य के रूप में अर्पित कर देना चाहिए, किन्तु यह भेंट भौतिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए बनावटी ढंग से नहीं, अपितु हृदय से की जानी चाहिए। यह भेंट अर्पण कहलाती है। इसके साथ ही शिष्टाचार सीखने तथा भक्ति का समुचित आचरण करने के लिए उसे भक्तों तथा सन्त पुरुषों के साथ रहना चाहिए। इस सम्बन्ध में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कहते हैं कि गुरु को जो कुछ भी अर्पित किया जाये वह प्रेम तथा स्नेहपूर्वक किया जाये, भौतिक स्तवन के लिए नहीं। इसी प्रकार यह भी संस्तुति की गई है कि मनुष्य भक्तों की संगति करे, किन्तु उसे तनिक विवेक से काम लेना होगा। वास्तव में साधु को अपने आचरण में सन्त जैसा होना चाहिए (साधव: सदाचारा:)। जब तक वह आदर्श आचरण में दृढ़ नहीं रहता उसका साधु पद पूर्ण नहीं है। अतएव एक वैष्णव या साधु को आदर्श आचरण में दृढ़ और पूर्ण रहना चाहिए। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर कहते हैं कि वैष्णव का सम्मान वैष्णव के योग्य होना चाहिए जिसका अर्थ है कि उसकी सेवा की जानी चाहिए तथा स्तवन किया जाना चाहिए। किन्तु यदि वह संगति के उपयुक्त व्यक्ति नहीं है, तो उसकी संगति नहीं करनी चाहिए। |