स्थावर-जङ्गम देखे, ना देखे तार मूर्ति। सर्वत्र हय निज इष्टदेव-स्फूर्ति ॥ “महाभागवत प्रत्येक चल तथा अचल वस्तु को देखता है लेकिन वह उनके वास्तविक रूपों को नहीं देखता। प्रत्युत वह जहाँ कहीं भी देखता है, वहीं उसे परमेश्वर का रूप प्रकट दिखता है।” (चैतन्य-चरितामृत, मध्य ८.२७४) यहाँ तक कि इस जगत में भी भक्त भौतिकरूप से प्रकट होने वाली वस्तुओं को नहीं देखता, इसके बदले में वह हर वस्तु में गोविन्द के दर्शन करता है। जब कोई भक्त किसी वृक्ष या मनुष्य को देखता है, तो वह उन्हें गोविन्द रूप में देखता है। गोविन्दमादिपुरुषम्— गोविन्द प्रत्येक वस्तु के आदि स्रोत हैं। ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्द विग्रह:। अनादिरादिर्गोविन्द: सर्वकारणकारणम् ॥ “गोविन्द कहलाने वाले कृष्ण परम नियन्ता है। सच्चिदानन्द रूप हैं। वे सबों के उद्गम हैं। उनका कोई अन्य उद्गम नहीं हैं, क्योंकि वे समस्त कारणों के कारण हैं।” (ब्रह्म-संहिता ५.१) एक पूर्ण भक्त की पहचान यही है कि वह इस ब्रह्माण्ड में गोविन्द के सर्वत्र दर्शन करता है, यहाँ तक कि एक परमाणु में भी (अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थम् )। भक्त की यही पूर्ण दृष्टि है। इसीलिए कहा गया है— नारायणमयं धीरा: पश्यन्ति परमार्थिन:। जगद् धनमयं लुब्धा: कामुका: कामिनीमयम् ॥ भक्त हर एक को नारायण रूप में देखता है (नारायणमयम् )। प्रत्येक वस्तु नारायण की शक्ति का विस्तार है। जिस प्रकार लोभी को प्रत्येक वस्तु कमाई का साधन प्रतीत होती है और जिस प्रकार कामी को सारी वस्तु काम के लिए अनुकूल लगती हैं उसी तरह परम पूर्ण भक्त प्रह्लाद महाराज ने एक एत्थर के ख भे के भीतर भी नारायण को देखा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम किसी भ्रष्ट व्यक्ति द्वारा गढ़े गये दरिद्र नारायण शब्द को स्वीकार करें। वास्तव में जो नारायण का सर्वत्र दर्शन करता है, वह दरिद्र तथा धनी में कोई अन्तर नहीं करता। दरिद्र नारायण को चुनना और धनी नारायण का परित्याग—भक्त की यह दृष्टि नहीं होती प्रत्युत यह भौतिकतावादी व्यक्तियों की अपूर्ण दृष्टि है। |