श्री-नारद: उवाच—श्री नारद ने कहा; एतावत्—यहाँ तक; वर्णित—वर्णन किया गया; गुण:—दिव्य गुण; भक्त्या—भक्ति से; भक्तेन—भक्त (प्रह्लाद महाराज) द्वारा; निर्गुण:—दिव्य भगवान्; प्रह्रादम्—प्रह्लाद महाराज को; प्रणतम्—भगवान् के चरणकमलों की शरण में आया हुआ; प्रीत:—प्रसन्न होकर; यत-मन्यु:—क्रोध को वश में करके; अभाषत—इस प्रकार बोलने लगे ।.
अनुवाद
महान् ऋषि नारद ने कहा : इस प्रकार अपने भक्त प्रह्लाद महाराज द्वारा दिव्य पद से प्रार्थना किये जाने पर भगवान् नृसिंह देव शान्त हो गये। उन्होंने अपना क्रोध त्याग दिया और दण्डवत् प्रणाम करने वाले प्रह्लाद पर अत्यधिक दयालु होने के कारण उनसे इस प्रकार बोले।
तात्पर्य
यहाँ पर निर्गुण शब्द महत्त्वपूर्ण है। मायावादी दार्शनिक परम सत्य को निर्गुण या निराकार मानते हैं। निर्गुण शब्द भौतिक
गुणों से विहीन का सूचक है। दिव्य गुणों से पूर्ण होने के कारण भगवान् ने अपना क्रोध त्याग दिया और प्रह्लाद से बोले।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥