गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता: ॥ “तुम बुद्धिमानी की बातें कहते हुए उसके लिए शोक करते हो जो शोक करने योग्य नहीं है। जो लोग बुद्धिमान् हैं, वे न तो जीवित के लिए शोक करते हैं न मरे हुए के लिए।” इस प्रकार जैसे कृष्ण ने अर्जुन को यह कहते हुए फटकारा कि वह पण्डित नहीं है, बलि महाराज ने भी इन्द्र तथा उसके पार्षदों को फटकारा। इस भौतिक जगत में काल के अधीन ही सब घटित होता है। फलस्वरूप ऐसे विद्वान व्यक्ति के लिए जो यह देखता है कि किस तरह घटनाएँ घटती हैं, प्रकृति की लहरों के कारण दुखी या सुखी होने का प्रश्न ही नहीं उठता। आखिर, जब हम इन लहरों द्वारा बहाकर ले जाये जा रहे हैं, तो हर्षित होने या खिन्न होने से क्या लाभ? जो प्रकृति के नियमों से भलीभाँति अवगत है, वह प्रकृति के कार्यकलापों के कारण, कभी भी न तो हर्षित होता है न खिन्न। भगवद्गीता (२.१४) में कृष्ण उपदेश देते हैं कि मनुष्य सहिष्णु बने—तांस्तितिक्षस्व भारत। कृष्ण के इस उपदेश का पालन करते हुए मनुष्य को परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण न तो खिन्न होना चाहिए न प्रसन्न। यह भक्त का लक्षण है। भक्त कृष्णभावनामृत में अपना कर्तव्य पालन करता है और विषम परिस्थिति में अप्रसन्न नहीं रहता। उसे पूर्ण विश्वास रहता है कि ऐसी परिस्थितियों में कृष्ण अपने भक्त की रक्षा करते हैं। अतएव भक्त भक्ति के अपने नियत कर्तव्य से कभी विचलित नहीं होता। हर्ष तथा विषाद् जैसे भौतिक गुण देवताओं तक में रहते हैं, जो उच्चलोक में अच्छा स्थान ग्रहण किए हुए हैं। अतएव जब कोई व्यक्ति इस भौतिक जगत की तथाकथित अनुकूल तथा प्रतिकूल दशाओं में अविचलित रहे तो उसे ब्रह्मभूत या स्वरूपसिद्ध समझना चाहिए। जैसाकि भगवद्गीता (१८.५४) में कहा गया है—ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति—जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त ही परबह्म का साक्षात्कार करता है और पूरी तरह प्रसन्न हो जाता है। जब मनुष्य भौतिक दशाओं से विचलित नहीं होता तो उसे दिव्य स्तर पर स्थित समझना चाहिए, जो प्रकृति के तीन गुणों के प्रभावों से ऊपर है। |