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अध्याय 12: मोहिनी-मूर्ति अवतार पर शिवजी का मोहित होना
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में वर्णन हुआ है कि किस तरह भगवान् के सुन्दर मोहिनी-मूर्ति अवतार को देखकर शिवजी मोहित हो गये और बाद में किस तरह उन्हें होश आया। जब शिवजी ने आकर्षक स्त्री... |
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श्लोक 1-2: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : स्त्री के रूप में भगवान् हरि ने दानवों को मोह लिया और देवताओं को अमृत पिलाया। इन लीलाओं को सुनकर बैल पर सवारी करने वाले शिवजी उस स्थान पर गये जहाँ भगवान् मधुसूदन रहते हैं। शिवजी अपनी पत्नी उमा को साथ लेकर तथा अपने साथी प्रेतों से घिरकर वहाँ भगवान् के स्त्री-रूप को देखने गये। |
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श्लोक 3: भगवान् ने शिवजी तथा उमा का अत्यन्त सम्मान के साथ स्वागत किया और ठीक प्रकार से बैठ जाने पर शिवजी ने भगवान् की विधिवत् पूजा की तथा मुस्काते हुए वे इस प्रकार बोले। |
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श्लोक 4: महादेवजी ने कहा : हे देवताओं में प्रमुख देव! हे सर्वव्यापी, ब्रह्माण्ड के स्वामी! आपने अपनी शक्ति से अपने को सृष्टि में रूपान्तरित कर दिया है। आप हर वस्तु के मूल एवं सक्षम कारण हैं। आप भौतिक नहीं हैं। निस्सन्देह, आप हर एक की परम सञ्जीवनी शक्ति या परमात्मा हैं। अतएव आप परमेश्वर हैं अर्थात् सभी नियंत्रकों के परम नियंत्रक हैं। |
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श्लोक 5: हे भगवान्! व्यक्त, अव्यक्त, मिथ्या अहंकार तथा इस दृश्य जगत का आदि (उत्पत्ति), पालन तथा संहार सभी कुछ आपसे है। किन्तु आप परम सत्य, परमात्मा, परम ब्रह्म हैं अतएव जन्म, मृत्यु तथा पालन जैसे परिवर्तन आप में नहीं पाये जाते। |
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श्लोक 6: जो शुद्ध भक्त या महान् सन्त पुरुष (मुनिगण) जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करने के इच्छुक हैं तथा इन्द्रियतृप्ति की समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, वे आपके चरणकमलों की निरन्तर भक्ति में लगे रहते हैं। |
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श्लोक 7: हे प्रभु! आप परब्रह्म तथा सभी प्रकार से पूर्ण हैं। पूर्णत: आध्यात्मिक होने के कारण आप नित्य, प्रकृति के भौतिक गुणों से मुक्त तथा दिव्य आनन्द से पूरित हैं। निस्सन्देह, आपके लिए शोक करने का प्रश्न ही नहीं उठता। चूँकि आप समस्त कारणों के परम कारण हैं अतएव आपके बिना कोई भी अस्तित्व में नहीं रह सकता। फिर भी जहाँ तक कारण तथा कार्य का सम्बन्ध है हम आपसे भिन्न हैं क्योंकि एक दृष्टि से कार्य तथा कारण पृथक्-पृथक् हैं। आप सृष्टि, पालन तथा संहार के मूल कारण हैं और आप समस्त जीवों को वर देते हैं। हर व्यक्ति अपने कार्यों के फलों के लिए आप पर निर्भर है, किन्तु आप सदा स्वतंत्र हैं। |
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श्लोक 8: हे प्रभु! आप अकेले ही कार्य तथा कारण हैं, अतएव आप दो प्रतीत होते हुए भी परम एक हैं। जिस तरह आभूषण के सोने तथा खान के सोने में कोई अन्तर नहीं होता, उसी तरह कारण तथा कार्य में अन्तर नहीं होता, दोनों ही एक हैं। अज्ञानवश ही लोग अन्तर तथा द्वैत गढ़ते हैं। आप भौतिक कल्मष से मुक्त हैं और चूँकि समस्त ब्रह्माण्ड आपके द्वारा उत्पन्न है और आपके बिना नहीं रह सकता अतएव यह आपके दिव्य गुणों का प्रभाव है। इस प्रकार इस धारणा को कोई बल नहीं मिलता कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है। |
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श्लोक 9: जो निर्विशेष मायावादी कहलाते हैं, वे आपको निर्विशेष ब्रह्म के रूप में मानते हैं। मीमांसक विचारक आपको धर्म के रूप में मानते हैं। सांख्य दार्शनिक आपको ऐसा परम पुरुष मानते हैं, जो प्रकृति तथा पुरुष के परे है और देवताओं का भी नियंत्रक है। जो लोग पञ्चरात्र नामक भक्ति के नियमों के अनुयायी हैं, वे आपको नौ शक्तियों से युक्त मानते हैं। तथा पतञ्जलि मुनि के अनुयायी, जो पतञ्जल दार्शनिक कहलाते हैं, आपको उस परम स्वतंत्र भगवान् के रूप में मानते हैं जिसके न तो कोई तुल्य है और जिस से कोई श्रेष्ठ है। |
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श्लोक 10: हे प्रभु! सभी देवताओं में श्रेष्ठ माना जाने वाला मैं, ब्रह्माजी तथा मरीचि इत्यादि महर्षि सतोगुण से उत्पन्न हैं। तब भी हम सभी आपकी माया से मोहग्रस्त हैं और यह नहीं समझ पाते कि यह सृष्टि क्या है। आप हमारी बात छोड़ भी दें तो उन असुरों तथा मनुष्यों के बारे में क्या कहा जाये जो प्रकृति के निम्न गुणों (रजो तथा तमो गुणों) से युक्त हैं? वे आपको कैसे जान सकते हैं? |
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श्लोक 11: हे प्रभु! आप साक्षात् परम ज्ञान हैं। आप इस सृष्टि तथा इसके सृजन, पालन तथा संहार के विषय में सब कुछ जानते हैं। आप जीवों द्वारा किये जाने वाले उन सारे प्रयासों से अवगत हैं जिनके द्वारा वे इस भौतिक जगत से बँधते या मुक्त होते हैं। जिस प्रकार वायु विस्तीर्ण आकाश के साथ-साथ समस्त चराचर प्राणियों में प्रविष्ट करती है उसी प्रकार आप सर्वत्र विद्यमान हैं, अतएव सर्वज्ञ हैं। |
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श्लोक 12: हे प्रभु! मैंने आपके उन सभी अवतारों का दर्शन किया है जिन्हें आप अपने दिव्य गुणों के द्वारा प्रकट कर चुके हैं। अब जबकि आप एक सुन्दर तरुणी के रूप में प्रकट हुए हैं, मैं आपके उसी स्वरूप का दर्शन करना चाहता हूँ। |
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श्लोक 13: हे भगवान्! हम लोग यहाँ पर आपके उस रूप का दर्शन करने आये हैं जिसे आपने असुरों को पूर्णतया मोहित करने के लिए दिखलाया था और इस प्रकार देवताओं को अमृत पान करने दिया था। मैं उस रूप को देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक हूँ। |
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श्लोक 14: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जब त्रिशूलधारी शिवजी ने भगवान् विष्णु से इस तरह प्रार्थना की तो वे गम्भीर होकर हँस पड़े और उन्होंने उनको इस प्रकार से उत्तर दिया। |
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श्लोक 15: भगवान् ने कहा : जब असुरों ने अमृत घट छीन लिया तो मैंने उन्हें प्रत्यक्ष छलावा देकर मोहित करने के उद्देश्य से और इस तरह देवताओं के हित में कार्य करने के लिए, एक सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर लिया। |
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श्लोक 16: हे देवश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें अपना वह रूप दिखाऊँगा जो कामी पुरुषों द्वारा अत्यधिक सराहा जाता है। चूँकि तुम मेरा वैसा रूप देखना चाहते हो अतएव मैं तुम्हारे समक्ष उसे प्रकट करूँगा। |
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श्लोक 17: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : ऐसा कहकर भगवान् विष्णु तुरन्त ही अन्तर्धान हो गये और शिवजी उमा सहित वहीं पर चारों ओर आँखें घुमाते उन्हें ढूँढ़ते रह गये। |
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श्लोक 18: तत्पश्चात् शिवजी ने गुलाबी पत्तियों तथा विचित्र फूलों से भरे निकट के एक सुन्दर जंगल में एक सुन्दर स्त्री को गेंद से खेलते देखा। उसके कूल्हे एक चमचमाती साड़ी से ढके थे तथा एक करधनी से सुशोभित थे। |
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श्लोक 19: चूँकि गेंद ऊपर तथा नीचे उछल रही थी अतएव जब वह उससे खेलती तो उसके स्तन हिलते थे और जब वह अपने मूँगों जैसे लाल मुलायम पाँवों से इधर-उधर चलती तो उन स्तनों के गुरु भार से तथा फूलों की भारी माला से उसकी कमर प्रत्येक पग पर टूटती हुई प्रतीत हो रही थी। |
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श्लोक 20: उस स्त्री का मुखमण्डल विस्तृत तथा सुन्दर था और चंचल आँखों से सुशोभित था और वह अपने हाथों द्वारा उछाली गई गेंद के साथ घूम रही थीं। उसके कानों के दो जगमगाते कुण्डल उसके चमकते गालों पर साँवली छाया की तरह सुशोभित हो रहे थे और उसके मुख पर बिखरे बाल उसे देखने में और भी सुन्दर बना रहे थे। |
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श्लोक 21: जब वह गेंद खेलती तो उसके शरीर को ढकने वाली साड़ी ढीली पड़ जाती और उसके बाल बिखर जाते। वह अपने सुन्दर बाएँ हाथ से अपने बालों को बाँधने का प्रयास करती और साथ ही दाएँ हाथ से गेंद को मारकर खेलती जा रही थी। यह इतना आकर्षक दृश्य था कि भगवान् ने अपनी अन्तरंगा शक्ति से इस तरह हर एक को मोह लिया। |
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श्लोक 22: जब शिवजी इस सुन्दर स्त्री को गेंद खेलते हुए देख रहे थे, तब वह कभी इन पर दृष्टि डालती और लज्जा से थोड़ा हँस देती। ज्योंही शिवजी ने उस सुन्दर स्त्री को देखा और उसने इन्हें ताका त्योंही वे स्वयं को तथा अपनी सर्वसुन्दर पत्नी उमा और अपने निकटस्थ पार्षदों को भूल गये। |
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श्लोक 23: जब गेंद उसके हाथ से उछलकर दूर जा गिरी तो वह स्त्री उसका पीछा करने लगी, किन्तु जब शिवजी इन लीलाओं को देख रहे थे तो अचानक वायु उसके सुन्दर वस्त्र तथा उसकी करधनी को जो उसे ढके हुए थे, उड़ा ले गई। |
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श्लोक 24: इस प्रकार शिवजी ने उस स्त्री को देखा जिसके शरीर का अंग प्रत्यंग सुगठित था और उस सुन्दर स्त्री ने भी उनकी ओर देखा। अतएव यह सोचकर कि वह स्त्री उनके प्रति आकृष्ट है, शिवजी उसके प्रति अत्यधिक आकृष्ट हो गये। |
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श्लोक 25: उस स्त्री के साथ रमण करने की कामेच्छा के कारण अपना विवेक खोकर शिवजी उसके लिए इतने पागल हो उठे कि भवानी की उपस्थिति में भी वे उसके पास जाने में तनिक भी नहीं हिचकिचाये। |
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श्लोक 26: वह सुन्दरी पहले ही नंगी हो चुकी थी और जब उसने देखा कि शिवजी उसकी ओर चले आ रहे हैं, तो वह अत्यन्त लज्जित हुई। इस तरह वह हँसती रही, किन्तु उसने अपने आपको वृक्षों के बीच छिपा लिया। वह किसी एक स्थान पर खड़ी नहीं रही। |
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श्लोक 27: शिवजी की इन्द्रियाँ विचलित थीं और वे कामवासनाओं के वशीभूत होकर उसका पीछा करने लगे जिस तरह कोई कामी हाथी हथिनी का पीछा करता है। |
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श्लोक 28: तेजी से उसका पीछा करते हुए शिवजी ने उसके बालों का जूड़ा पकड़ लिया और उसे अपने पास खींच लिया। फिर उसके न चाहने पर भी उन्होंने अपनी भुजाओं में भरकर उसका आलिङ्गन कर लिया। |
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श्लोक 29-30: जिस तरह हाथी हथिनी का आलिंगन करता है उसी तरह वह स्त्री, जिसके बाल बिखरे थे, शिवजी द्वारा आलिंगित होकर साँप की तरह सरकने लगी। हे राजा, यह बड़े और ऊँचे नितम्बों वाली स्त्री भगवान् द्वारा प्रस्तुत की गई योगमाया थी। उसने अपने को जिस-तिस भाँति शिवजी के आलिंगन से छुड़ाया और वह भाग गई। |
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श्लोक 31: शिवजी भगवान् विष्णु का जो आश्चर्यजनक कार्य करने वाले हैं और जिन्होंने मोहिनी रूप धारण कर रखा था, ऐसे पीछा करने लगे जैसे वे काम-वासना रूपी शत्रु द्वारा सताये गए हों। |
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श्लोक 32: जिस प्रकार गर्भधारण करने में सक्षम हथिनी का पीछा मदान्ध हाथी करता है, उसी तरह शिवजी उस सुन्दर स्त्री का पीछा कर रहे थे। यद्यपि उनका वीर्य व्यर्थ में स्खलित नहीं होता, किन्तु इस अवसर पर उनका वीर्य स्खलित हो गया। |
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श्लोक 33: हे राजा! पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ महापुरुष शिवजी का वीर्य गिरा वहीं-वहीं बाद में सोने तथा चाँदी की खानें प्रकट हो गईं। |
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श्लोक 34: शिवजी मोहिनी का पीछा करते हुए नदियों तथा झीलों के किनारे, पर्वतों, जंगलों, उद्यानों के पास तथा जहाँ कहीं ऋषिमुनि रह रहे थे, गये। |
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श्लोक 35: हे राजश्रेष्ठ महाराज परीक्षित! जब शिवजी का वीर्य पूर्णतया स्खलित हो गया तो उन्होंने देखा कि वे किस प्रकार भगवान् द्वारा उत्पन्न माया के द्वारा वशीभूत हो गए। इस तरह उन्होंने अपने आपको माया द्वारा और अधिक वशीभूत होने से रोका। |
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श्लोक 36: इस प्रकार शिवजी को अपनी तथा असीम शक्तिमान भगवान् की स्थिति का बोध हो गया। इस ज्ञान के प्राप्त होने पर उन्हें तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ कि भगवान् विष्णु ने किस अद्भुत विधि से उन पर माया का जाल फैलाया था। |
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श्लोक 37: शिवजी को अविचलित एवं लज्जारहित देखकर भगवान् विष्णु (मधुसूदन) अत्यन्त प्रसन्न हुए। तब उन्होंने अपना मूल रूप धारण कर लिया और वे इस प्रकार बोले। |
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श्लोक 38: भगवान् ने कहा : हे देवताओं में श्रेष्ठ! यद्यपि तुम मेरे द्वारा स्त्रीरूप धारण करने की मेरी शक्ति द्वारा अत्यधिक पीडि़त हुए हो, किन्तु तुम अपने पद पर स्थिर हो। अतएव तुम्हारा कल्याण हो। |
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श्लोक 39: हे प्रिय शम्भु! इस भौतिक जगत में तुम्हारे अतिरिक्त ऐसा कौन है, जो मेरी माया से पार पा सके? सामान्यतया लोग इन्द्रियभोग में आसक्त रहते हैं और इसके प्रभाव में फँस जाते हैं। निस्सन्देह, उनके लिए माया के प्रभाव को लाँघ पाना अत्यन्त कठिन है। |
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श्लोक 40: यह भौतिक बहिरंगा शक्ति (माया), जो सृष्टि में मुझे सहयोग देती है और प्रकृति के तीनों गुणों में प्रकट होती है अब तुम्हें मोहित नहीं कर सकेगी। |
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श्लोक 41: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! वक्षस्थल पर श्रीवत्स-चिन्ह धारण करने वाले भगवान् द्वारा इस प्रकार प्रशंसित होकर शिवजी ने उनकी परिक्रमा की। फिर उनकी अनुमति लेकर शिवजी अपने गणों सहित अपने धाम कैलास लौट गये। |
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श्लोक 42: हे भरतवंशी महाराज! तब शिवजी ने परम प्रसन्न होकर अपनी पत्नी भवानी को सम्बोधित किया जो सभी अधिकारियों द्वारा भगवान् विष्णु की शक्ति के रूप में स्वीकार की जाती हैं। |
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श्लोक 43: शिवजी ने कहा : हे देवी! अब तुमने भगवान् की माया देख ली है, जो सबके अजन्मा स्वामी हैं। यद्यपि मैं उनके प्रमुख विस्तारों में से एक हूँ तो भी मैं उनकी शक्ति से भ्रमित हो गया था। तो फिर, उन लोगों के विषय में क्या कहा जाये जो माया पर पूर्णत: आश्रित हैं? |
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श्लोक 44: जब मैंने एक हजार वर्षों की योग-साधना पूरी कर ली तो तुमने मुझसे पूछा था कि मैं किसका ध्यान कर रहा था। अब ये वही परम पुरुष हैं जिन तक काल नहीं पहुँच पाता और जिन्हें वेद नहीं समझ पाते। |
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श्लोक 45: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! जिस पुरुष ने क्षीरसागर के मन्थन के लिए अपनी पीठ पर महान् पर्वत धारण किया था वही शार्ङ्गधन्वा नामक भगवान् हैं। मैंने तुमसे अभी उन्हीं के पराक्रम का वर्णन किया है। |
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श्लोक 46: जो कोई क्षीरसागर के मन्थन की इस कथा को निरन्तर सुनता या सुनाता है, उसका प्रयास कभी भी निष्फल नहीं होगा। निस्सन्देह, भगवान् के यश का कीर्तन इस भौतिक संसार में समस्त कष्टों को ध्वस्त करने का एकमात्र साधन है। |
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श्लोक 47: एक तरुण स्त्री का रूप धारण करके तथा इस प्रकार असुरों को मोहित करके भगवान् ने अपने भक्तों अर्थात् देवताओं को क्षीरसागर के मन्थन से उत्पन्न अमृत बाँट दिया। मैं उन भगवान् को जो अपने भक्तों की इच्छाओं को सदा पूरा करते हैं अपना सादर नमस्कार अर्पित करता हूँ। |
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