एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिं यच्छक्तिरस्ति जगदण्डचया यदन्त:। अण्डान्तरस्थपरमाणुचयान्तरस्थं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ “मैं उन भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो अपने एक स्वांश के द्वारा प्रत्येक ब्रह्माण्ड तथा प्रत्येक परमाणु में प्रवेश करते हैं और इस प्रकार सारी सृष्टि में अपनी असीम शक्ति को प्रकट करते हैं।” आनन्दचिन्मयरसप्रतिभाविताभि स्ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभि:। गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ “मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो अपने निजी धाम गोलोक में उन राधा के साथ निवास करते हैं, जो उनके आध्यात्मिक स्वरूप के अनुरूप हैं और ह्लादिनी शक्ति से समन्वित हैं। उनकी सखियां उनकी विश्वस्त संगनियाँ हैं, जो उनके शारीरिक स्वरूप के अंश रूप हैं और नित्य आनन्दमय आध्यात्मिक रस से ओतप्रोत हैं।” (ब्रह्मसंहिता ५.३७)। यद्यपि गोविन्द सदा अपने धाम में निवास करते हैं (गोलोक एव निवसति) किन्तु वे एकसाथ सर्वत्र विद्यमान हैं। उनसे कुछ भी छिपा नहीं है और न ही छिपाया जा सकता है। यहाँ पर दिए उदहरण में भगवान् की तुलना वायु से की गई है, जो विस्तीर्ण आकाश में तथा प्रत्येक शरीर के भीतर रहती है, किन्तु फिर भी उन सबसे भिन्न रहती है। |