मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना। मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित: ॥ “यह सारा ब्रह्माण्ड मेरे अव्यक्त रूप से व्याप्त है। सारे जीव मुझमें हैं, किन्तु मैं उनमें नहीं हूँ।” इससे अचिन्त्य-भेदाभेद अर्थात् एकसाथ एकत्व तथा भिन्नता दर्शन की व्याख्या हो जाती है। प्रत्येक वस्तु परम ब्रह्म है; फिर भी परम पुरुष हर वस्तु से पृथक् स्थित है। निस्सन्देह, हर भौतिक वस्तु से पृथक् स्थित होने के कारण वे परम ब्रह्म, परम कारण तथा परम नियन्ता हैं। ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्द-विग्रह:। भगवान् परम कारण हैं और उनके स्वरूप को प्रकृति के भौतिक गुणों से कोई सरोकार नहीं रहता। भक्त प्रार्थना करता है “जिस तरह आपका भक्त समस्त इच्छाओं से पूर्णत: रहित है उसी प्रकार आप भी इच्छाओं से पूर्णतया मुक्त हैं। आप पूर्णत: स्वतंत्र हैं। यद्यपि सारे जीव आपकी सेवा में लगे रहते हैं, किन्तु आप किसी की सेवा पर आश्रित नहीं हैं। यद्यपि यह संसार पूरी तरह से आपके द्वारा सृजित है, किन्तु सब कुछ आपकी स्वीकृति पर निर्भर करता है। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है—मत्त: स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च—स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति आप ही से उत्पन्न हैं। स्वतंत्र रूप से कुछ भी नहीं किया जा सकता, किन्तु आप अपने सेवकों द्वारा की गई सेवा पर आश्रित न रहते हुए स्वतंत्र होकर कर्म करते हैं। सारे जीव अपनी मुक्ति के लिए आपकी कृपा पर आश्रित रहते हैं, किन्तु जब आप उन्हें मुक्ति देना चाहते हैं, तो आप किसी अन्य पर आश्रित नहीं रहते। निस्सन्देह, अपनी अहैतुकी कृपा से आप किसी को भी मुक्ति दे सकते हैं। जिन्हें आपकी कृपा प्राप्त होती है वे कृपासिद्ध कहलाते हैं। सिद्धि-पद को प्राप्त करने में अनेकानेक जन्म लग जाते हैं। (बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान् मां प्रपद्यते)। फिर भी कठोर तपस्या किये बिना ही आपकी कृपा से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। भक्ति को अहैतुकी होना चाहिए और अवरोधों से मुक्त (अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा सुप्रसीदति)। यही निराशिष: पद है अर्थात् सभी प्रकार के फलों की आशा से मुक्ति। शुद्ध भक्त निरन्तर आपकी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है, किन्तु आप उसकी सेवा पर आश्रित न रहकर किसी पर भी कृपा कर सकते हैं।” |