इस श्लोक में धर्म तथा सनातन ये दो शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। सनातन का अर्थ है “शाश्वत” और धर्म का अर्थ है “वृत्तिपरक कर्तव्य।” सतयुग से कलियुग आते-आते धर्म तथा वृत्तिपरक कर्तव्य में क्रमश: ह्रास आता जाता है। सतयुग में धर्म का पूरी तरह पालन होता है। किन्तु त्रेता में धर्म की कुछ-कुछ उपेक्षा होती है और केवल तीन-चौथाई धार्मिक कर्तव्य चालू रह पाते हैं। द्वापर में केवल आधा धर्म रह जाता है और कलियुग में केवल एक चौथाई धर्म रहता है, जो क्रमश: लुप्त हो जाता है। कलियुग के अन्त में धर्म या मानव के वृत्तिपरक कर्तव्य प्राय: विनष्ट हो जाते हैं। निस्सन्देह, हम इस कलियुग में केवल पाँच हजार वर्ष भीतर प्रविष्ट हुए हैं फिर भी सनातन धर्म का ह्रास अत्यन्त मुखर है। अतएव ऋषियों का कर्तव्य है कि वे सनातन धर्म के हित के बारे में गम्भीरता से सोचें और इसे समस्त मानव समाज के लाभ के लिए पुन:स्थापित करने का प्रयास करें। कृष्णभावनामृत आन्दोलन इसी सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भ किया गया है। जैसा कि श्रीमद्भागवत (१२.३.५१) में कहा गया है— कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण:।
कीर्तनाद् एव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् ॥
समग्र कलियुग दोषों से पूर्ण है। यह दोषों के असीम समुद्र की भाँति है, किन्तु कृष्णभावनामृत आन्दोलन अत्यन्त प्रामाणिक है। अतएव श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणचिह्नों का अनुगमन करते हुए उनके आदेशों के अनुसार हम इस कृष्ण-कीर्तन के आन्दोलन को विश्वभर में जारी रखने का प्रयास कर रहे हैं जिसका उद्घाटन आज से पाँच सौ वर्ष पूर्व श्री चैतन्य ने संकीर्तन आन्दोलन, कृष्णकीर्तन, का उन्होंने किया था। अब यदि इस आन्दोलन के उद्धाटक विधि-विधानों का दृढ़ता से पालन करें और सारे मानव समाज के लाभ के लिए इस आन्दोलन का प्रसार करें तो वे सनातन धर्म की पुन:स्थापना करते हुए नवीन जीवनशैली का सूत्रपात करेंगे। मनुष्य का सनातन धर्म है कृष्ण की सेवा करना। जीवेर ‘स्वरूप’ हय—कृष्णेर नित्य दास। सनातन धर्म का यही सारांश है। सनातन का अर्थ है नित्य या शाश्वत और कृष्ण-दास का अर्थ है “कृष्ण का दास।” मनुष्य का शाश्वत वृत्तिपरक कर्तव्य कृष्ण की सेवा करना है। कृष्णभावनामृत आन्दोलन का यही सार है।