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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 16: पयोव्रत पूजा विधि का पालन करना  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  8.16.1 
श्रीशुक उवाच
एवं पुत्रेषु नष्टेषु देवमातादितिस्तदा ।
हृते त्रिविष्टपे दैत्यै: पर्यतप्यदनाथवत् ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्—इस प्रकार; पुत्रेषु—अपने पुत्रों को; नष्टेषु—अपने पदों से अदृश्य हुए; देव-माता—देवताओं की माता; अदिति:—अदिति ने; तदा—उस समय; हृते—खो जाने के कारण; त्रि-विष्टपे—स्वर्गलोक से; दैत्यै:—असुरों के प्रभाव के कारण; पर्यतप्यत्—पश्चाताप करने लगी; अनाथ-वत्—अनाथ की तरह ।.
 
अनुवाद
 
 शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजा! जब अदिति के पुत्र देवतागण स्वर्गलोक से इस तरह से अदृश्य हो गये और असुरों ने उनका स्थान ग्रहण कर लिया तो अदिति इस प्रकार विलाप करने लगी मानो उसका कोई रक्षक न हो।
 
 
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