कश्यपमुनि ने इन शब्दों के द्वारा अपनी पत्नी को शान्त करना चाहा। अदिति ने अपने भौतिकतावादी पति से याचना की थी। निस्सन्देह, यह अति उत्तम है लेकिन वास्तव में किसी का भौतिकतावादी सम्बन्धी उसकी कोई भलाई नहीं कर सकता। यदि कोई भलाई की जा सकती है, तो वह भगवान् वासुदेव द्वारा ही की जाती है। इसलिए कश्यपमुनि ने अपनी पत्नी अदिति को उपदेश दिया कि वह भगवान् वासुदेव की पूजा करनी शुरू कर दे जो हर एक के हृदय के भीतर आसीन हैं। वे सबके मित्र हैं और जनार्दन कहे जाते हैं क्योंकि वे समस्त शत्रुओं का विनाश कर सकते हैं। भौतिक प्रकृति के तीन गुण हैं—सतो, रजो तथा तमो और प्रकृति के भी ऊपर दूसरा जगत है, जो शुद्ध-सत्त्व कहलाता है। भौतिक जगत में सतोगुण सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, किन्तु भौतिक कल्मष के कारण कभी- कभी सतोगुण भी रजो तथा तमो गुणों से पराजित हो जाता है। किन्तु जब कोई व्यक्ति इन गुणों की स्पर्धा को पार करके अपने को भक्ति में लगाता है, तो वह प्रकृति के तीनों गुणों से ऊपर उठ जाता है। उस दिव्य अवस्था में वह शुद्ध चेतना को प्राप्त होता है। सत्त्वं विशुद्धं वसुदेव शब्दितम् (भागवत ४.३.२३)। भौतिक प्रकृति के ऊपर वह पद है, जो वसुदेव कहलाता है अर्थात् भौतिक कल्मष से मुक्ति। केवल इसी पद पर मनुष्य को भगवान् वासुदेव की अनुभूति हो सकती है। इस प्रकार वसुदेव पद आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ति करता है। वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:। जब मनुष्य को वासुदेव अर्थात् भगवान् की अनुभूति हो जाती है, तो वह अत्यन्त महान् बन जाता है। जैसी कि भगवद्गीता (१०.१०) में पुष्टि हुई है, परमात्मा (वासुदेव) हर एक के हृदय में स्थित हैं। भगवान् कहते हैं—
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
“जो लोग निरन्तर भक्ति में लगे रहते हैं और प्रेमपूर्वक मेरी पूजा करते हैं उन्हें मैं वह बुद्धि देता हूँ जिससे वे मेरे पास आ सकें।”
ईश्वर सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति “हे अर्जुन! भगवान् हर एक के हृदय में स्थित हैं” (भगवद्गीता १८.६१) भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
“ऋषिगण मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का चरम प्रयोजन, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर तथा समस्त जीवों का उपकारी तथा शुभचिन्तक जानकर भौतिक क्लेशों के चंगुल से शान्ति प्राप्त करते हैं” (भगवद्गीता ५.२९) जब कभी कोई परेशान हो तो उसे वासुदेव कृष्ण के चरणकमलों की शरण ग्रहण करनी चाहिए।
वे भक्त को इन सारी कठिनाइयों को पार करने तथा भगवद्धाम जाने की बुद्धि प्रदान करेंगे। कश्यपमुनि ने अपनी पत्नी को वासुदेव कृष्ण के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने की सलाह दी जिससे उसकी सारी समस्याएँ सरलता से हल हो जाँय। इस प्रकार कश्यपमुनि एक आदर्श गुरु थे। वे इतने मूर्ख नहीं थे कि वे अपने आप को ईश्वर के समकक्ष एक महापुरुष के रूप में प्रस्तुत करते। वस्तुत: वे प्रामाणिक गुरु थे क्योंकि उन्होंने अपनी पत्नी को वासुदेव के चरणकमलों की शरण ग्रहण करने की सलाह दी। जो व्यक्ति अपने अधीनस्थ या शिष्य को वासुदेव की पूजा करने का उपदेश देता है, वह सचमुच प्रामाणिक गुरु है। इस प्रसंग में जगद्गुरुम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। कश्यपमुनि ने झूठे ही अपने को जगद्गुरु घोषित नहीं किया यद्यपि वे वास्तव में जगद्गुरु थे क्योंकि उन्होंने वासुदेव के पक्ष का समर्थन किया। वस्तुत: वासुदेव ही जगद्गुरु हैं जैसाकि यहाँ स्पष्ट कहा गया है (वासुदेवं जगद्गुरुम् )। जो वासुदेव के उपदेशों की अर्थात् भगवद्गीता की शिक्षा देता है, वह वासुदेवं जगद्गुरुम् जैसा ही होता है। किन्तु जब कोई इस उपदेश की यथारूप शिक्षा नहीं देता किन्तु अपने आपको जगद्गुरु घोषित करता है, तो वह जनता को मात्र ठगता है। कृष्ण ही जगद्गुरु हैं और जो कृष्ण की ओर से यथारूप में कृष्ण के उपदेश की शिक्षा देता है उसे जगद्गुरु माना जा सकता है। जो अपने सिद्धान्त स्वयं गढ़ता है उसे जगद्गुरु नहीं माना जा सकता; वह झूठे ही जगद्गुरु बन बैठता है।