अप्यभद्रं न विप्राणां भद्रे लोकेऽधुनागतम् ।
न धर्मस्य न लोकस्य मृत्योश्छन्दानुवर्तिन: ॥ ४ ॥
शब्दार्थ
अपि—क्या; अभद्रम्—दुर्भाग्य; न—नहीं; विप्राणाम्—ब्राह्मणों का; भद्रे—हे अदिति; लोके—इस संसार में; अधुना—इस समय; आगतम्—आ गया है; न—नहीं; धर्मस्य—धर्म का; न—नहीं; लोकस्य—सामान्य लोगों का; मृत्यो:—मृत्यु; छन्द- अनुवर्तिन:—जो लोग मृत्यु के गालों में जाने वाले हैं ।.
अनुवाद
हे भद्रे! मुझे आश्चर्य है कि कहीं धर्म पर, ब्राह्मण वर्ग या काल की सोच में पड़ी जनता को कुछ हो तो नहीं गया?
तात्पर्य
इस जगत के सभी निवासियों के लिए और विशेष रूप से ब्राह्मणों के लिए नियत कर्म तो हैं ही, किन्तु जो लोग काल के गाल में जाने वाले हैं ये उन लागों के लिए भी हैं। कश्यपमुनि
को आश्चर्य हो रहा था कि क्या सारे अनुष्ठानों का जो सर्वसाधारण के हितके लिए हैं उल्लंघन हुआ है। इसलिए वे सात श्लोकों तक प्रश्न पूछते जाते हैं।
____________________________
All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥