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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 16: पयोव्रत पूजा विधि का पालन करना  »  श्लोक 55
 
 
श्लोक  8.16.55 
दक्षिणां गुरवे दद्याद‍ृत्विग्भ्यश्च यथार्हत: ।
अन्नाद्येनाश्वपाकांश्च प्रीणयेत्समुपागतान् ॥ ५५ ॥
 
शब्दार्थ
दक्षिणाम्—धन या सोने का दान; गुरवे—गुरु को; दद्यात्—दे; ऋत्विग्भ्य: च—तथा गुरु द्वारा नियुक्त पुरोहितों को; यथा- अर्हत:—यथाशक्ति; अन्न-अद्येन—प्रसाद वितरण द्वारा; आश्व-पाकान्—चंडाल तक को जो कुत्ते का माँस खाने के आदी हैं; —भी; प्रीणयेत्—प्रसन्न करे; समुपागतान्—अनुष्ठान में एकत्र होने के कारण ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य को चाहिए कि गुरु तथा सहायक पुरोहितों को वस्त्र, आभूषण, गाएँ तथा कुछ धन का दान देकर प्रसन्न करे। तथा प्रसाद वितरण द्वारा वहाँ पर आये सभी लोगों को यहाँ तक कि सबसे अधम व्यक्ति चण्डाल (कुत्ते का माँस खाने वाले) को भी तुष्ट करे।
 
तात्पर्य
 वैदिक प्रणाली के अनुसार यहाँ पर संस्तुत विधि के अनुसार बिना भेदभाव के प्रसाद वितरण किया जाता है। चाहे कोई ब्राह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र, यहाँ तक कि अधमतम व्यक्ति चंडाल का भी प्रसाद लेने के लिए स्वागत करना चाहिए। किन्तु यदि चंडाल प्रसाद ग्रहण करे तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह नारायण या विष्णु बन गया है। नारायण जन-जन के हृदय में स्थित हैं, किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं होता कि नारायण चंडाल या दरिद्र व्यक्ति हैं। दरिद्र व्यक्ति को नारायण के रूप में स्वीकार करने की मायावादी विचारधारा अत्यन्त ईर्ष्यापूर्ण तथा वैदिक सभ्यता में नास्तिकतावादी आन्दोलन है। इस प्रवृत्ति का सर्वथा परित्याग होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को प्रसाद ग्रहण करने का अवसर मिलना चाहिए, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हर व्यक्ति को नारायण बन जाने का अधिकार है।
 
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