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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 16: पयोव्रत पूजा विधि का पालन करना  »  श्लोक 56
 
 
श्लोक  8.16.56 
भुक्तवत्सु च सर्वेषु दीनान्धकृपणादिषु ।
विष्णोस्तत्प्रीणनं विद्वान्भुञ्जीत सह बन्धुभि: ॥ ५६ ॥
 
शब्दार्थ
भुक्तवत्सु—भोजन कराने के बाद; —भी; सर्वेषु—वहाँ पर उपस्थित सब को; दीन—अत्यन्त निर्धन; अन्ध—अन्धा; कृपण—जो ब्राह्मण नहीं है; आदिषु—इत्यादि; विष्णो:—अन्तर्यामी भगवान् विष्णु का; तत्—वह (प्रसाद); प्रीणनम्—प्रसन्न करते हुए; विद्वान्—इस दर्शन को जानने वाला; भुञ्जीत—स्वयं प्रसाद ग्रहण करे; सह—साथ; बन्धुभि:—मित्रों तथा सम्बन्धियों के ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य को चाहिए कि वह दरिद्र, अन्धे, अभक्त तथा अब्राह्मण हर व्यक्ति को विष्णु-प्रसाद बाँटे। यह जानते हुए कि जब हर एक व्यक्ति पेट भरकर विष्णु-प्रसाद पा लेता है, तो भगवान् विष्णु परम प्रसन्न होते हैं, यज्ञकर्ता को अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों सहित प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।
 
 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥