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श्लोक 8.16.8  |
अप्यग्नयस्तु वेलायां न हुता हविषा सति ।
त्वयोद्विग्नधिया भद्रे प्रोषिते मयि कर्हिचित् ॥ ८ ॥ |
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शब्दार्थ |
अपि—क्या; अग्नय:—अग्नि; तु—निस्सन्देह; वेलायाम्—अग्नियज्ञ में; न—नहीं; हुता:—डाला गया; हविषा—घी द्वारा; सति—हे सती; त्वया—तुम्हारे द्वारा; उद्विग्न-धिया—किसी चिन्ता के कारण; भद्रे—हे कल्याणी; प्रोषिते—घर से दूर था; मयि—जब मैं; कर्हिचित्—कभी-कभी ।. |
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अनुवाद |
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हे सती तथा शुभे! जब मैं घर से अन्य स्थानों को चला गया तो क्या तुम इतनी चिन्तित थीं कि अग्नि में घी की आहुति भी नहीं दे सकीं? |
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