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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 16: पयोव्रत पूजा विधि का पालन करना  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  8.16.9 
यत्पूजया कामदुघान्याति लोकान्गृहान्वित: ।
ब्राह्मणोऽग्निश्च वै विष्णो: सर्वदेवात्मनो मुखम् ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
यत्-पूजया—अग्नि तथा ब्राह्मणों की पूजा द्वारा; काम-दुघान्—इच्छाओं को पूरा करने वाला; याति—जो जाता है; लोकान्— उच्च लोकों को; गृह-अन्वित:—गृहस्थ जीवन के प्रति आसक्त; ब्राह्मण:—ब्राह्मणों; अग्नि: च—तथा अग्नि; वै—निस्सन्देह; विष्णो:—भगवान् विष्णु का; सर्व-देव-आत्मन:—सारे देवताओं का आत्मा; मुखम्—मुख ।.
 
अनुवाद
 
 एक गृहस्थ अग्नि तथा ब्राह्मणों की पूजा करके उच्च लोकों में निवास करने के वांछित लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है क्योंकि यज्ञ की अग्नि तथा ब्राह्मणों को समस्त देवताओं के परमात्मा स्वरूप भगवान् विष्णु का मुख माना जाना चाहिए।
 
तात्पर्य
 वैदिक प्रथा के अनुसार अग्नियज्ञ घी, अन्न, फल, फूल इत्यादि की आहुति देने के लिए किया जाता है, जिससे भगवान् विष्णु इन्हें खाकर सन्तुष्ट हों। भगवद्गीता (९.२६) में भगवान् कहते हैं—

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तदहं भक्त्युपहृतम् अश्नामि प्रयतात्मन: ॥

“यदि कोई मुझे प्रेम तथा भक्ति के साथ एक पत्ती, एक फूल, फल या जल अर्पित करता है, तो मैं उसे ग्रहण करता हूँ।” अतएव यज्ञ-अग्नि में ये सभी वस्तुएँ अर्पित की जाने से भगवान् विष्णु प्रसन्न हो जाएँगें। इसी प्रकार ब्राह्मण-भोजन की भी संस्तुति की जाती है क्योंकि जब ब्राह्मण लोग यज्ञ के पश्चात् बचे हुए भव्य भोजन को खाते हैं, तो इससे एक प्रकार से साक्षात् भगवान् विष्णु भोजन करते होते हैं। अतएव वैदिक सिद्धान्त संस्तुति करते हैं कि प्रत्येक उत्सव या पर्व पर अग्नि में आहुतियाँ डाली जाये और ब्राह्मणों को खाने के लिए अच्छा भोजन दिया जाय। ऐसे कार्यों से गृहस्थ स्वर्गलोक तथा ऐसे ही अन्य उच्चलोकों को जाता है।

 
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