भगवद्गीता (९.२९) में भगवान् कहते हैं—समोऽहं सर्वभूतेषु—मैं समस्त जीवों के प्रति समभाव रखता हूँ। तो भी भक्तों की रक्षा करने तथा उत्पात मचाने वाले असुरों का वध करने के लिए भगवान् ने अदिति की कुक्षि में प्रवेश किया। अतएव यह भगवान् की दिव्य लीला है। इसका गलत अर्थ नहीं लगाना चाहिए। किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि भगवान् उसी प्रकार से अदिति के पुत्र बने जिस तरह स्त्री तथा पुरुष के संभोग से एक सामान्य बालक उत्पन्न होता है। आजकल के मत-मतान्तर के युग में यहाँ पर जीवन की उत्पत्ति के विषय में बताना उपयुक्त होगा। जीव की जीवनी शक्ति—आत्मा—मानव के वीर्य तथा रज से भिन्न है। यद्यपि बद्ध आत्मा को पुरुष तथा स्त्री की प्रजनन कोशिकाओं से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता, वह अपने कर्म के अनुसार उचित स्थिति में रख दिया जाता है (कर्मणा दैवनेत्रेण)। इस तरह जीवन मात्र रज-वीर्य का प्रतिफल नहीं अपितु सारे भौतिक तत्त्वों से स्वतंत्र होता है। जैसाकि भगवद्गीता में भलीभाँति बताया गया है, जीव किसी भौतिक फल पर आश्रित नहीं होता। जीव को न तो अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न किसी तेज हथियार से काटा जा सकता है, न जल से भिगोया जा सकता है, न ही हवा से सुखाया जा सकता है। वह भौतिक तत्त्वों से पूर्णतया स्वतंत्र होता है, किन्तु किसी श्रेष्ठ व्यवस्था द्वारा वह इन भौतिक तत्त्वों में धर दिया जाता है। वह सदा ही भौतिक सम्पर्क से पृथक् रहता है (असङ्गो ह्यं पुरुष:), किन्तु भौतिक दशा प्राप्त होने के कारण उसे प्रकृति के गुणों का बन्धन भोगना पड़ता है। पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान् गुणान्। कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ “इस तरह जीव प्रकृति के तीनों गुणों का भोग करता हुआ जीवनयापन करता है। यह भौतिक प्रकृति की संगति के कारण होता है। इस तरह विभिन्न योनियों में उसे अच्छे-बुरे से पाला पड़ता है।” (भगवद्गीता १३.२२) यद्यपि जीव भौतिक तत्त्वों से पृथक् है, किन्तु वह भौतिक अवस्था को प्राप्त होता है और इस तरह उसे भौतिक क्रियाकलापों के फल भोगने होते हैं। |