भगवान् वामनदेव इस जगत में अदिति के गर्भ से शंख, चक्र, गदा तथा कमल धारण किये उत्पन्न हुए। उनका शारीरिक वर्ण साँवला था और वे पीताम्बर पहने थे। भगवान् विष्णु श्रावण द्वादशी के शुभ अवसर पर जब अभिजित नक्षत्र उदित हो चुका था, प्रकट हुए। उस समय भगवान् के प्राकट्य से तीनों लोकों में अर्थात् उच्च लोकबाह्य लोक तथा पृथ्वीलोक में सभी देवता, गाएँ, ब्राह्मण यहाँ तक कि सारी ऋतुएँ भी प्रसन्न थीं। अतएव यह शुभ दिवस विजया कहलाता है। जब सच्चिदानन्द विग्रह भगवान् कश्यप तथा अदिति के पुत्र रूप में प्रकट हुए तो उनके माता पिता दोनों अत्यन्त विस्मित हुए। प्रकट होने के बाद भगवान् ने वामन रूप धारण कर लिया। सारे ऋषियों ने हर्ष प्रकट किया और कश्यपमुनि की उपस्थिति में भगवान् वामन का जन्मोत्सव सम्पन्न किया। उनके यज्ञोपवीत संस्कार के समय सूर्यदेव, बृहस्पति, पृथ्वी की प्रधान देवी, स्वर्गलोकों के देवता, उनकी माता, ब्रह्माजी, कुवेर, सप्तर्षि इत्यादि ने उनका सम्मान किया। तब भगवान् वामनदेव नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर स्थित उस यज्ञस्थल पर गये जो भृगुकच्छ कहलाता है जहाँ भृगुवंशी ब्राह्मण यज्ञ कर रहे थे। भगवान् वामनदेव मूंज की मेखला, मृगछाला तथा जनेऊ पहने और हाथ में दण्ड, छत्र तथा कमण्डलु लिए महाराज बलि की यज्ञशाला में प्रकट हुए। उनके दिव्य तेज से सारे पुरोहितों का तेज घट गया और उन्होंने अपने-अपने आसनों से खड़े होकर भगवान् वामनदेव की स्तुति की। शिवजी भी भगवान् वामनदेव के अँगूठे से निकले गंगाजल को अपने सिर पर धारण करते हैं अतएव बलि महाराज ने भगवान् वामनदेव के चरण धोकर अपने सिर पर चढ़ाया और यह अनुभव किया कि वे और उनके पूर्वज इससे महिमामण्डित हुए थे। तब बलि महाराज ने वामनदेव की कुशलता पूछी और उनसे प्रार्थना की कि वे धन, रत्न या जो भी इच्छा हो, माँगें। |