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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 19: बलि महाराज से वामनदेव द्वारा दान की याचना  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  8.19.34 
क्रमतो गां पदैकेन द्वितीयेन दिवं विभो: ।
खं च कायेन महता तार्तीयस्य कुतो गति: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
क्रमत:—क्रमश:; गाम्—भूमि; पदा एकेन—एक पग से; द्वितीयेन—दूसरे पग से; दिवम्—सारा बाह्य आकाश; विभो:— विश्वरूप का; खम् च—आकाश भी; कायेन—उनके दिव्य शरीर के विस्तार से; महता—विश्वरूप से; तार्तीयस्य—जहाँ तक तीसरे पग की बात है; कुत:—कहाँ है; गति:—पग रखने के लिए ।.
 
अनुवाद
 
 सर्वप्रथम वामनदेव एक पग से तीनों लोकों को घेर लेंगे, तत्पश्चात् वे दूसरा पग भरेंगे और बाह्य आकाश की प्रत्येक वस्तु को ले लेंगे और तब वे अपने विश्वरूप का विस्तार करके सर्वस्व पर अधिकार जमा लेंगे। तब तुम उन्हें तीसरा पग रखने के लिए कहाँ स्थान दोगे?
 
तात्पर्य
 शुक्राचार्य बलि महाराज को बताना चाह रहे थे कि वे भगवान् वामन द्वारा ठगे जाएँगे। उन्होंने कहा “तुमने तीन पग का वचन दिया है, किन्तु केवल दो ही पग में तुम्हारा सर्वस्व समाप्त हो जायेगा। तब तुम उन्हें तीसरे पग के लिए किस प्रकार स्थान दे पाओगे?” शुक्राचार्य को पता नहीं था कि भगवान् अपने भक्त की किस तरह रक्षा करते हैं। भक्त को चाहिए कि भगवान् की सेवा में वह अपने अधिकार की सारी वस्तुएँ खतरे में डाल दे किन्तु उसकी सदैव रक्षा होती है और वह कभी भी परास्त नहीं होता। शुक्राचार्य ने भौतिक दृष्टि से अनुमान लगाकर सोचा कि बलि महाराज किसी भी तरह ब्रह्मचारी भगवान् वामनदेव को दिया गया अपना वचन पूरा नहीं कर सकेंगे।
 
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