श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 2: गजेन्द्र का संकट  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस स्कंध के द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ अध्यायों में यह बताया गया है कि भगवान् ने किस तरह चतुर्थ मनु के राज्यकाल में हाथियों के राजा (गजेन्द्र) को संरक्षण प्रदान...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्! त्रिकूट नाम का एक विशाल पर्वत है। यह दस हजार योजन (८० हजार मील) ऊँचा है। चारों ओर से क्षीरसागर द्वारा घिरे होने के कारण इसकी स्थिति अत्यन्त रमणीक है।
 
श्लोक 2-3:  पर्वत की लम्बाई तथा चौड़ाई समान (८० हजार मील) है। इसकी तीन प्रमुख चोटियाँ, जो लोहे, चाँदी तथा सोने की बनी हैं, सारी दिशाओं एवं आकाश को सुन्दर बनाती हैं। पर्वत में अन्य चोटियाँ भी हैं, जो रत्नों तथा खनिजों से पूर्ण हैं और सुन्दर वृक्षों, लताओं एवं झाडिय़ों से अलंकृत हैं। पर्वत के झरनों से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह सुहावनी है। इस प्रकार यह पर्वत सभी दिशाओं में सुन्दरता को बढ़ाते हुए खड़ा है।
 
श्लोक 4:  पर्वत के पाद की भूमि सदैव दूध की लहरों से प्रक्षालित होती रहती है, जो आठों दिशाओं में (उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम तथा इनके बीच की दिशाओं में) मरकत मणियाँ उत्पन्न करती रहती है।
 
श्लोक 5:  उच्चलोकों के वासी—सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, उरग, किन्नर तथा अप्सराएँ—इस पर्वत में क्रीड़ा करने के लिए जाते हैं। इस तरह पर्वत की सारी गुफाएँ स्वर्गलोकों के निवासियों से भरी रहती हैं।
 
श्लोक 6:  गुफाओं में स्वर्ग के निवासियों के गायन की गूँजती हुई ध्वनियों के कारण वहाँ के सिंह, जिन्हें अपनी शक्ति पर गर्व है, असह्य ईर्ष्या के कारण यह सोचकर गर्जना करते हैं कि वहाँ पर कोई अन्य सिंह वैसे ही दहाड़ रहा है।
 
श्लोक 7:  त्रिकूट पर्वत के नीचे की घाटियाँ अनेक प्रकार के जंगली जानवरों से सुशोभित हैं और देवताओं के उद्यानों में जो वृक्ष हैं उन पर नाना प्रकार के पक्षी सुरीली तान से चहकते रहते हैं।
 
श्लोक 8:  त्रिकूट पर्वत में अनेक नदियाँ तथा झीलें हैं जिनके किनारे बालू के कणों के सदृश छोटे छोटे रत्नों से ढके हैं। उनका जल मणियों की भाँति निर्मल है। जब देवताओं की स्त्रियाँ उनमें स्नान करती हैं, तो उनके शरीरों से जल तथा पवन सुगन्धि ग्रहण कर लेते हैं जिससे वायुमण्डल और भी सुगन्धित हो जाता है।
 
श्लोक 9-13:  त्रिकूट पर्वत की घाटी में ऋतुमत् नामक उद्यान था। यह उद्यान महान् भक्त वरुण का था और यह देवांगनाओं का क्रीड़ास्थल था। यहाँ सभी ऋतुओं में फूल-फल उगते रहते थे। इनमें से मन्दार, पारिजात, पाटल, अशोक, चम्पक, आम्रविशेष (चूत), पियाल, पनस, आम, आम्रातक, क्रमुक, नारियल, खजूर तथा अनार मुख्य थे। वहाँ पर मधुक, ताड़, तमाल, असन, अर्जुन, अरिष्ट, उडुम्बर, प्लक्ष, बरगद, किंशुक तथा चन्दन के वृक्ष थे। वहाँ पर पिचुमर्द, कोविदार, सरल, सुरदारु, अंगूर, गन्ना, केला, जम्बु, बदरी, अक्ष, अभय तथा आमलकी भी थे।
 
श्लोक 14-19:  उस उद्यान में एक विशाल सरोवर था, जो चमकीले सुनहरे कमल के फूलों से तथा कुमुद, कह्लार, उत्पल एवं शतपत्र फूलों से भरा था जिनसे पर्वत की सुन्दरता में वृद्धि हो रही थी। उस उद्यान में बिल्व, कपित्थ, जम्बीर तथा भल्लातक वृक्ष भी थे। मदमत्त भौरें मधुपान कर रहे थे और अत्यन्त मधुर ध्वनि में गान करने वाले पक्षियों की चहचहाहट के साथ वे भी गुनगुना रहे थे। सरोवर में हंसों, कारण्डवों, चक्रावकों, सारसों, जलमुर्गियों, दात्यूहों, कोयष्टियों तथा अन्य चहचहाते पक्षियों के झुंड के झुंड थे। मछलियों तथा कछुवों के इधर-उधर तेजी से गति करने से कमल के फूलों से जो परागकण गिरे थे उनसे जल सुशोभित था। सरोवर के चारों ओर कदम्ब, वेतस, नल, नीप, वञ्जुलक, कुन्द, कुरुबक, अशोक, शिरीष, कूटज, इंगुद, कुब्जक, स्वर्णयूथी, नाग, पुन्नाग, जाति, मल्लिका, शतपत्र, जालका तथा माधवी लताएँ थीं। सरोवर के तट ऐसे वृक्षों से भलीभान्ति अलंकृत थे, जो सभी ऋतुओं में फूल तथा फल देने वाले थे। इस तरह पूरा पर्वत भव्य रूप से सजा हुआ था।
 
श्लोक 20:  एक बार हाथियों का अगुवा (प्रमुख), जो त्रिकूट पर्वत के जंगल में रह रहा था, अपनी हथिनियों के साथ सरोवर की ओर घूमने निकला। उसने अनेक पौधों, लताओं तथा गुल्मों को उनके चुभने वाले काँटों की परवाह न करते हुए नष्ट-भ्रष्ट कर डाला।
 
श्लोक 21:  उस हाथी की सुगंध पाकर ही सारे अन्य हाथी, बाघ तथा अन्य हिंस्र पशु—यथा सिंह, गैंडे, सर्प एवं सफेद-काले सरभ—भय से भाग गये। यहाँ तक कि चमरी हिरन भी भाग निकले।
 
श्लोक 22:  इस हाथी की कृपा से लोमड़ी, भेडिय़ा, भैंसें, भालू, सुअर, गोपुच्छ, सेही, बन्दर, खरहे, हिरन तथा अन्य छोटे पशु जंगल में सर्वत्र विचरण करते रहते थे। वे उससे भयभीत नहीं थे।
 
श्लोक 23-24:  वह हाथियों का राजा गजपति झुंड के अन्य हाथियों तथा हथिनियों से घिरा था और उसके पीछे-पीछे हाथी के बच्चे चल रहे थे। वह अपने शरीर के भार से त्रिकूट पर्वत को चारों ओर से हिला रहा था। उसके पसीना छूट रहा था, उसके मुँह से मद की लार टपक रही थी और उसकी दृष्टिमद से भरी थी। मधु पी-पीकर भौरें उसकी सेवा कर रहे थे और वह दूर से ही उन कमल फूलों के रजकणों की सुगंध का अनुभव कर रहा था, जो मन्द पवन द्वारा उस सरोवर से ले जाई जा रही थी। इस प्रकार प्यास से पीडि़त अपने साथियों से घिरा वह गजपति तुरन्त सरोवर के तट पर आया।
 
श्लोक 25:  वह हाथियों का राजा (गजपति गजेन्द्र) सरोवर में घुस गया, पूरी तरह नहाया और अपनी थकान से मुक्त हो गया। तब उसने अपनी सूँड़ से जी भरकर शीतल, स्वच्छ अमृततुल्य जल पिया जो कमलपुष्पों तथा जल कुमुदिनियों की रज से मिश्रित था।
 
श्लोक 26:  आध्यात्मिक ज्ञान से विहीन एवं अपने परिवार वालों के प्रति अत्यधिक आसक्त मनुष्य की भाँति उस हाथी ने कृष्ण की बहिरंगा शक्ति (माया) द्वारा मोहित होकर अपनी पत्नी तथा बच्चों को स्नान कराया और पानी पिलाया। उसने अपनी सूंड़ में सरोवर का पानी भरकर उन सबके ऊपर छिडक़ा। उसने इस प्रयास में लगने वाले कठिन श्रम की परवाह नहीं की।
 
श्लोक 27:  हे राजा! भाग्यवश एक बलिष्ठ घडिय़ाल ने, जो हाथी पर क्रुद्ध था, जल के भीतर से ही हाथी के पैर पर आक्रमण कर दिया। हाथी निश्चय ही बलवान् था और उसने भाग्य द्वारा प्रेषित इस संकट से अपनी शक्ति भर अपने को छुड़ाने का प्रयत्न किया।
 
श्लोक 28:  तत्पश्चात् गजेन्द्र को उस विकट स्थिति में देखकर उसकी पत्नियाँ अत्यधिक दुखी हुईं और चिंग्घाडऩे लगीं। दूसरे हाथियों ने गजेन्द्र की सहायता करनी चाही, किन्तु घडिय़ाल की विपुल शक्ति के कारण वे उसे पीछे से पकडक़र उसको नहीं बचा सके।
 
श्लोक 29:  हे राजा! इस तरह हाथी तथा घडिय़ाल जल के बाहर तथा जल के भीतर एक दूसरे को घसीट कर एक हजार वर्षों तक लड़ते रहे। इस लड़ाई को देखकर देवतागण अत्यन्त चकित थे।
 
श्लोक 30:  तत्पश्चात् जल के भीतर खींचे जाने तथा दीर्घकाल तक लड़ते रहने के कारण हाथी की मानसिक, शारीरिक तथा ऐन्द्रिय शक्ति घटने लगी। इसके विपरीत जल का पशु होने के कारण घडिय़ाल का उत्साह, उसकी शारीरिक शक्ति तथा ऐन्द्रिय शक्ति बढ़ती रही।
 
श्लोक 31:  जब गजेन्द्र ने देखा कि वह दैवी इच्छा से घडिय़ाल के चंगुल में है और बंधन में फंसकर परिस्थितिवश असहाय है एवं अपने को संकट से नहीं उबार सकता तो वह मारे जाने से अत्यन्त भयभीत हो उठा। फलस्वरूप उसने दीर्घकाल तक सोचा और अन्ततोगत्वा वह इस निर्णय पर पहुँचा।
 
श्लोक 32:  जब मेरे मित्र तथा अन्य सम्बन्धी हाथी मुझे इस संकट से नहीं उबार सके तो मेरी पत्नियों का तो कहना ही क्या? वे कुछ नहीं कर सकतीं। यह दैवी इच्छा थी कि इस घडिय़ाल ने मुझ पर आक्रमण किया है, अतएव मैं उन भगवान् की शरण में जाता हूँ जो हर एक को, यहाँ तक कि महापुरुषों को भी, सदैव शरण प्रदान करते हैं।
 
श्लोक 33:  भगवान् निश्चय ही हर एक को ज्ञात नहीं हैं, किन्तु वे हैं अत्यन्त शक्तिशाली तथा प्रभावशाली। अतएव यद्यपि काल रूपी सर्प प्रचण्ड वेग से निरन्तर मनुष्य का पीछा कर रहा है और उसे निगलने को उद्यत है, तथापि, यदि वह इस सर्प से डरकर भगवान् की शरण में जाता है, तो भगवान् उसे संरक्षण प्रदान करते हैं क्योंकि भगवान् के भय से मृत्यु भी भाग जाती है। अतएव मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ जो महान् एवं शक्तिशाली परम सत्ता हैं और हर एक के वास्तविक आश्रय हैं।
 
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