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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 2: गजेन्द्र का संकट  »  श्लोक 2-3
 
 
श्लोक  8.2.2-3 
तावता विस्तृत: पर्यक्त्रिभि: श‍ृङ्गै: पयोनिधिम् ।
दिश: खं रोचयन्नास्ते रौप्यायसहिरण्मयै: ॥ २ ॥
अन्यैश्च ककुभ: सर्वा रत्नधातुविचित्रितै: ।
नानाद्रुमलतागुल्मैर्निर्घोषैर्निर्झराम्भसाम् ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
तावता—उस प्रकार से; विस्तृत:—लम्बाई तथा चौड़ाई (८० हजार मील); पर्यक्—चारों ओर; त्रिभि:—तीन; शृङ्गै:—चोटियों से; पय:-निधिम्—क्षीरसागर में एक द्वीप में स्थित; दिश:—सारी दिशाएँ; खम्—आकाश; रोचयन्—सुहावना; आस्ते—खड़ा हुआ; रौप्य—चाँदी; अयस—लोह; हिरण्मयै:—तथा सोने से बना; अन्यै:—अन्य चोटियों समेत; —भी; ककुभ:—दिशाएँ; सर्वा:—सभी; रत्न—रत्न; धातु—तथा खनिज से; विचित्रितै:—सुन्दर ढंग से अलंकृत; नाना—अनेक; द्रुम-लता—पौधे तथा लताओं; गुल्मै:—तथा झाडिय़ों से; निर्घोषै:—ध्वनि से; निर्झर—झरने के; अम्भसाम्—जल की ।.
 
अनुवाद
 
 पर्वत की लम्बाई तथा चौड़ाई समान (८० हजार मील) है। इसकी तीन प्रमुख चोटियाँ, जो लोहे, चाँदी तथा सोने की बनी हैं, सारी दिशाओं एवं आकाश को सुन्दर बनाती हैं। पर्वत में अन्य चोटियाँ भी हैं, जो रत्नों तथा खनिजों से पूर्ण हैं और सुन्दर वृक्षों, लताओं एवं झाडिय़ों से अलंकृत हैं। पर्वत के झरनों से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, वह सुहावनी है। इस प्रकार यह पर्वत सभी दिशाओं में सुन्दरता को बढ़ाते हुए खड़ा है।
 
 
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