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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 2: गजेन्द्र का संकट  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  8.2.20 
तत्रैकदा तद्‌गिरिकाननाश्रय:
करेणुभिर्वारणयूथपश्चरन् ।
सकण्टकं कीचकवेणुवेत्रवद्
विशालगुल्मं प्ररुजन्वनस्पतीन् ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ पर; एकदा—एक बार; तत्-गिरि—उस पर्वत (त्रिकूट) के; कानन-आश्रय:—जंगल में रहने वाला; करेणुभि:— हथिनियों के साथ; वारण-यूथ-प:—हाथियों का अगुवा; चरन्—विचरण करते (सरोवर की ओर); स-कण्टकम्—काँटों से भरा स्थान; कीचक-वेणु-वेत्र-वत्—विभिन्न नामों वाले पौधों तथा लताओं से युक्त; विशाल-गुल्मम्—अनेक जंगल; प्ररुजन्—तोड़ते हुए; वन:-पतीन्—वृक्षों और पौधों को ।.
 
अनुवाद
 
 एक बार हाथियों का अगुवा (प्रमुख), जो त्रिकूट पर्वत के जंगल में रह रहा था, अपनी हथिनियों के साथ सरोवर की ओर घूमने निकला। उसने अनेक पौधों, लताओं तथा गुल्मों को उनके चुभने वाले काँटों की परवाह न करते हुए नष्ट-भ्रष्ट कर डाला।
 
 
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