न—नहीं; माम्—मुझको; इमे—ये सब; ज्ञातय:—मित्र तथा सम्बन्धी (अन्य हाथी); आतुरम्—मेरे दुख में; गजा:—हाथी; कुत:—कैसे; करिण्य:—मेरी पत्नियाँ; प्रभवन्ति—समर्थ हैं; मोचितुम्—(इस संकटमय स्थिति से) उद्धार करने में; ग्राहेण— घडिय़ाल से; पाशेन—फन्दे से; विधातु:—भाग्य के; आवृत:—बन्दी; अपि—यद्यपि (मैं ऐसी स्थिति में हूँ); अहम्—मैं; च— भी; तम्—उस (भगवान्) की; यामि—शरण में जाता हूँ; परम्—जो दिव्य हैं; परायणम्—जो ब्रह्मा तथा शिव जैसे सम्मानित देवताओं की भी शरण हैं ।.
अनुवाद
जब मेरे मित्र तथा अन्य सम्बन्धी हाथी मुझे इस संकट से नहीं उबार सके तो मेरी पत्नियों का तो कहना ही क्या? वे कुछ नहीं कर सकतीं। यह दैवी इच्छा थी कि इस घडिय़ाल ने मुझ पर आक्रमण किया है, अतएव मैं उन भगवान् की शरण में जाता हूँ जो हर एक को, यहाँ तक कि महापुरुषों को भी, सदैव शरण प्रदान करते हैं।
तात्पर्य
यह संसार पदं पदं यद्विपदाम् रूप में वर्णित है, जिसका अर्थ है कि इसमें पग-पग पर संकट है। मूर्ख झूठे ही सोचता है कि वह इस भौतिक जगत में सुखी है, लेकिन वास्तव में वह सुखी रहता नहीं क्योंकि जो ऐसा सोचता है, वह मोहग्रस्त है। इसमें पग-पग पर और हर क्षण संकट है। आधुनिक सभ्यता में मनुष्य सोचता है कि यदि उसके पास सुन्दर मकान और सुन्दर कार हो तो उसका जीवन पूर्ण है। पाश्चात्य जगत में, विशेषतया अमरीका में, अच्छी कार रखना उत्तम बात है, किन्तु ज्योंही वह सडक़ पर कार चलाता है, तो उसे संकट बना रहता है क्योंकि वह किसी भी क्षण दुर्घटना में मर सकता है। आँकड़े बताते हैं कि ऐसी दुर्घटनाओं में अनेक लोग मरते रहते हैं। अतएव यदि हम वास्तव में यह सोचते हैं कि यह संसार अत्यन्त सुखमय स्थान है, तो यह हमारा अज्ञान है। असली ज्ञान यह है कि यह भौतिक जगत संकट से पूर्ण है। हम वहीं तक जीवन-संघर्ष कर सकते हैं जहाँ तक हमारी बुद्धि काम करती है और इस तरह अपनी सुरक्षा करने का प्रयास कर सकते हैं, किन्तु जब तक भगवान् कृष्ण हमें अन्तत: संकट से बचा नहीं लेते तब तक हमारे प्रयास व्यर्थ रहेंगे। अतएव प्रह्लाद महाराज कहते हैं (भागवत ७.९.१९)—
भले ही हम सुखी रहने या इस भौतिक जगत के संकटों का सामना करने के लिए कितने ही साधन क्यों न ढूँढ लें, किन्तु जब तक हमारे प्रयासों को भगवान् से पुष्टि नहीं मिल जाती, वे हमें कभी सुखी नहीं बना पाएँगे। जो लोग भगवान् की शरण लिए बिना सुखी रहने का प्रयास करते हैं, वे मूढ़ हैं। न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:। अधम लोग कृष्णभावनामृत ग्रहण करने से मना कर देते हैं क्योंकि वे सोचते हैं कि कृष्ण की रक्षा के बिना ही वे अपनी रक्षा कर लेंगे। यह उनकी भूल है।
गजेन्द्र का निर्णय सही था। ऐसी संकटमय स्थिति में उसने भगवान् की शरण ग्रहण की।
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