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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 2: गजेन्द्र का संकट  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  8.2.33 
य: कश्चनेशो बलिनोऽन्तकोरगात्
प्रचण्डवेगादभिधावतो भृशम् ।
भीतं प्रपन्नं परिपाति यद्भ‍या-
न्मृत्यु: प्रधावत्यरणं तमीमहि ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
य:—जो (भगवान्); कश्चन—कोई; ईश:—परमनियन्ता; बलिन:—अत्यन्त शक्तिशाली; अन्तक-उरगात्—मृत्यु लाने वाले काल रूपी विशाल सर्प से; प्रचण्ड-वेगात्—अत्यन्त भयानक बल से; अभिधावत:—पीछा करता हुआ; भृशम्—निरन्तर (हर घड़ी); भीतम्—मृत्यु से डरा हुआ; प्रपन्नम्—शरणागत (भगवान् के); परिपाति—रक्षा करता है; यत्-भयात्—जिस भगवान् के डर से; मृत्यु:—साक्षात् मृत्यु; प्रधावति—भाग जाती है; अरणम्—हर एक के वास्तविक आश्रय; तम्—उसकी; ईमहि—मैं शरण लेता हूँ ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् निश्चय ही हर एक को ज्ञात नहीं हैं, किन्तु वे हैं अत्यन्त शक्तिशाली तथा प्रभावशाली। अतएव यद्यपि काल रूपी सर्प प्रचण्ड वेग से निरन्तर मनुष्य का पीछा कर रहा है और उसे निगलने को उद्यत है, तथापि, यदि वह इस सर्प से डरकर भगवान् की शरण में जाता है, तो भगवान् उसे संरक्षण प्रदान करते हैं क्योंकि भगवान् के भय से मृत्यु भी भाग जाती है। अतएव मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ जो महान् एवं शक्तिशाली परम सत्ता हैं और हर एक के वास्तविक आश्रय हैं।
 
तात्पर्य
 जो बुद्धिमान् है, वह समझता है कि सबों के ऊपर एक महान् तथा परम सत्ता है। यह महान् सत्ता निर्दोष व्यक्तियों को उत्पातों से बचाने के लिए विभिन्न अवतारों में प्रकट होती है। जैसाकि भगवद्गीता (४.८) में पुष्टि हुई है—परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्—भगवान् दो कारणों से—दुष्कृती का संहार करने तथा अपने भक्तों की रक्षा करने के उद्देश्य से विभिन्न अवतारों में प्रकट होते हैं। गजेन्द्र ने इनकी ही शरण में जाने का निर्णय लिया। यह बुद्धिमानी है। मनुष्य को उस महान् भगवान् को जानना चाहिए और अपने शरण ग्रहण करनी चाहिए। भगवान् प्रत्यक्ष रूप में हमें यह उपदेश देने आते हैं कि किस तरह सुखी रहा जाये। केवल मूर्ख तथा धूर्त ही बुद्धि होते हुए भी इस परम सत्ता—परम पुरुष—को नहीं देख पाते। श्रुति मन्त्र (तैत्तिरीय उपनिषद् २.८) में कहा गया है—

भीषास्माद् वात: पवते भीषोदेति सूर्य:।

भीषास्माद् अग्निश्चन्द्रश्च मृत्युर्धावति पञ्चम: ॥

भगवान् के भय से ही वायु बहती है, सूर्य उष्मा तथा प्रकाश का वितरण करता है और मृत्यु हर एक का पीछा करती है। इस प्रकार एक परमनियन्ता है, जैसाकि भगवद्गीता से (९.१०) पुष्टि होती है—मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्। यह भौतिक जगत परमनियन्ता के कारण ही इतनी अच्छी तरह कार्य करता है। अतएव कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति समझ सकता है कि किसी परमनियन्ता का अस्तित्व है। यही नहीं, यह परमनियन्ता साक्षात् कृष्ण के रूप में, चैतन्य महाप्रभु के रूप में तथा भगवान् रामचन्द्र के रूप में उपदेश देने तथा अपने उदाहरण से भगवान् की शरण में जाने की विधि बताने के लिए प्रकट होते हैं। फिर भी जो लोग अधम हैं (दुष्कृती) वे उनकी शरण में नहीं जाते (न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:)।

भगवद्गीता में भगवान् स्पष्ट कहते हैं—मृत्यु: सर्व हरश्चाहम्—“मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ।” अत: मृत्यु वह प्रतिनिधि है, जो प्रत्येक देहधारी जीव से सब कुछ छीन लेती है। कोई यह नहीं कह सकता “मैं मृत्यु से नहीं डरता।” यह झूठी धारणा है। हर व्यक्ति मृत्यु से डरता है। किन्तु जो भगवान् की शरण ग्रहण करता है, वह मृत्यु से बच सकता है। कोई यह तर्क कर सकता है “क्या भक्त नहीं मरता?” इसका उत्तर यह है कि निश्चित रूप से उसे शरीर त्यागना होगा क्योंकि शरीर भौतिक है। किन्तु अन्तर इतना ही है कि जो कृष्ण की पूर्ण शरण में जाता है और कृष्ण द्वारा रक्षित होता है, उसका वर्तमान शरीर अन्तिम शरीर होता है, उसे फिर से भौतिक शरीर धारण करके मृत्यु के अधीन नहीं होना होता। भगवद्गीता (४.९) में इसका आश्वासन दिया गया है—त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन—भक्त अपना शरीर त्यागने के बाद भौतिक शरीर नहीं पाता अपितु वह भगवद्धाम वापस जाता है। हम सदा संकट में रहते हैं क्योंकि किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। ऐसा नहीं है कि गजेन्द्र ही मृत्यु से भयभीत था। हरएक को मृत्यु से डरना चाहिए क्योंकि हरएक व्यक्ति काल-रूपी घडिय़ाल द्वारा पकड़ा जाता है और किसी भी क्षण मर सकता है। अतएव सर्वोत्तम मार्ग यही है कि भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करने का प्रयास किया जाये और इस संसार के जीवन-संघर्ष से बचा जाये जिसमें मनुष्य को बारम्बार जन्म लेना और मरना पड़ता है। इसी ज्ञान तक पहुँचना जीवन का चरम लक्ष्य है।

 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के आठवें स्कंध के अन्तर्गत “गजेन्द्र पर संकट” नामक दूसरे अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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