इस स्कंध के द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ अध्यायों में यह बताया गया है कि भगवान् ने किस तरह चतुर्थ मनु के राज्यकाल में हाथियों के राजा (गजेन्द्र) को संरक्षण प्रदान किया। इस द्वितीय अध्याय में बताया गया है कि जब हाथियों का राजा अपनी पत्नियों सहित जलविहार कर रहा था, तो सहसा एक घडिय़ाल (मगरमच्छ) ने उस पर आक्रमण कर दिया और गजेन्द्र ने अपनी रक्षा के लिए भगवान् के चरणकमलों पर आत्मसमर्पण कर दिया।
क्षीरसागर के मध्य में एक अत्यन्त ऊँचा तथा सुन्दर पर्वत है, जिसकी ऊँचाई दस हजार योजन अर्थात् अस्सी हजार मील है। यह पर्वत त्रिकूट कहलाता है। त्रिकूट पर्वत की घाटी में एक सुरम्य उद्यान है, जिसका नाम ऋतुमत है, जिसे वरुण ने बनाया था। उस क्षेत्र में एक अत्यन्त सुन्दर सरोवर भी है। एक बार हाथियों का प्रमुख अपनी पत्नियों सहित उस सरोवर में जलविहार करने गया जिससे जलचरों में हलचल मच गई। इससे उस सरोवर के अत्यन्त बलशाली प्रमुख घडिय़ाल ने तुरन्त ही हाथी के पाँव पर आक्रमण कर दिया। इस तरह हाथी तथा घडिय़ाल में महान्युद्ध छिड़ गया। यह युद्ध एक हजार वर्षों तक चलता रहा। उसमें न तो हाथी मरा, न घडिय़ाल, किन्तु जल में रहने से धीरे-धीरे हाथी का बल घटने लगा और घडिय़ाल का बल बढ़ता रहा। इससे घडिय़ाल को अधिकाधिक प्रोत्साहन मिलता रहा। तब अपने को असहाय पाकर एवं अपनी रक्षा का अन्य साधन न देखकर हाथी ने भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण की।
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