स तत्र हासीनमुदीक्ष्य सत्पतिं
हरिं सुनन्दाद्यनुगैरुपासितम् ।
उपेत्य भूमौ शिरसा महामना
ननाम मूर्ध्ना पुलकाश्रुविक्लव: ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
स:—प्रह्लाद महाराज ने; तत्र—वहाँ; ह आसीनम्—बैठे हुए को; उदीक्ष्य—देखकर; सत्-पतिम्—मुक्तात्माओं के स्वामी भगवान्; हरिम्—हरि को; सुनन्द-आदि-अनुगै:—सुनन्द आदि अपने अनुयायियों द्वारा; उपासितम्—पूजित; उपेत्य—पास जाकर; भूमौ—भूमि पर; शिरसा—सिर के बल (झुककर); महा-मना:—महान् भक्त; ननाम—प्रणाम किया; मूर्ध्ना—सिर के बल; पुलक-अश्रु-विक्लव:—हर्ष के आँसुओं से विचलित ।.
अनुवाद
जब प्रह्लाद महाराज ने देखा कि वहाँ पर सुनन्द जैसे अपने घनिष्ठ संगियों से घिर कर एवं पूजित होकर भगवान् बैठे हैं, तो उनकी आँखें प्रेमाश्रुओं से छलछला उठीं। उनके पास जाकर और भूमि पर गिरकर उन्होंने सिर के बल भगवान् को प्रणाम किया।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥