एष मे प्रापित: स्थानं दुष्प्रापममरैरपि ।
सावर्णेरन्तरस्यायं भवितेन्द्रो मदाश्रय: ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ
एष:—बलि महाराज; मे—मेरे द्वारा; प्रापित:—प्राप्त किया है; स्थानम्—स्थान; दुष्प्रापम्—प्राप्त करने में अत्यन्त कठिन; अमरै: अपि—यहाँ तक कि देवताओं के द्वारा भी; सावर्णे: अन्तरस्य—सावर्णि मनु के काल में; अयम्—यह बलि महाराज; भविता—होगा; इन्द्र:—स्वर्ग का स्वामी; मत्-आश्रय:—पूर्णत: मेरे संरक्षण में ।.
अनुवाद
भगवान् ने आगे कहा : उसकी महान् सहनशक्ति के कारण मैंने उसे वह स्थान प्रदान किया है, जो देवताओं को भी सुलभ नहीं हो पाता। वह सावर्णि मनु के काल में स्वर्ग का राजा बनेगा।
तात्पर्य
यह भगवान् की कृपा है। यहाँ तक कि जब भगवान् भक्त के ऐश्वर्य को भी छीनते हैं, तो वे उसे तुरन्त ऐसा स्थान प्रदान करते हैं, जो देवताओं को स्वप्न में भी सुलभ नहीं हो सकता। भक्ति के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। ऐसा एक उदाहरण सुदामा विप्र का ऐश्वर्य है। सुदामा विप्र को भौतिक सम्पत्ति की सख्त तंगी थी, किन्तु वह विचलित नहीं हुआ और भक्ति के पथ से हटा नहीं। अन्त में भगवान् कृष्ण ने कृपा करके उसे उच्च स्थान प्रदान किया। यहाँ पर मदाश्रय: शब्द अत्यन्त सार्थक है। चूँकि भगवान् बलि महाराज को इन्द्र का उच्च पद देना चाहते थे अतएव स्वभावत: सारे देवता उनसे ईर्ष्यालु हो जाते और उन्हें उस पद से विचलित करने के लिए लड़ाई करते। किन्तु भगवान् ने बलि महाराज को आश्वासन दिया कि वे उनके आश्रय में (मदाश्रय:) रहेंगे।
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