भगवान् द्वारा दिया गया दण्ड भक्त के द्वारा परम कृपा के रूप में स्वीकार किया जाता है— तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम्।
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन् नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥
“जो आपकी कृपा चाहता है और फलस्वरूप अपने विगत कर्मों के कारण सभी प्रकार की विषम परिस्थितियों को सहता है, जो तन, मन तथा वाणी से सदैव आपकी भक्ति में लगा रहता है और आपको सदैव नमस्कार करता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति का योग्य पात्र है।” (भागवत १०.१४.८)। भक्त जानता है कि भगवान् द्वारा दिया गया तथाकथित दण्ड अपने भक्त को सुधारने तथा सन्मार्ग पर लाने का उनका एकमात्र अनुग्रह है। अतएव भगवान् द्वारा दिये गये दण्ड की तुलना अपने पिता, माता, भाई या मित्र द्वारा दिये गये बड़े से बड़े लाभ से भी नहीं की जा सकती।