पितामहो मे भवदीयसम्मत:
प्रह्लाद आविष्कृतसाधुवाद: ।
भवद्विपक्षेण विचित्रवैशसं
सम्प्रापितस्त्वं परम: स्वपित्रा ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
पितामह:—बाबा; मे—मेरे; भवदीय-सम्मत:—आपके भक्तों द्वारा मान्य; प्रह्राद:—प्रह्लाद महाराज; आविष्कृत-साधु-वाद:— सर्वत्र भक्त के रूप में प्रसिद्ध; भवत्-विपक्षेण—आपके विरुद्ध होने मात्र से ही; विचित्र-वैशसम्—विभिन्न प्रकार से उत्पीडऩ करते हुए; सम्प्रापित:—कष्ट उठाया; त्वम्—तुमने; परम:—परम आश्रय; स्व-पित्रा—अपने ही पिता द्वारा ।.
अनुवाद
मेरे बाबा प्रह्लाद महाराज आपके सारे भक्तों द्वारा मान्य होकर प्रसिद्ध हैं। यद्यपि उनके पिता हिरण्यकशिपु ने उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट दिए थे, फिर भी वे आपके चरणकमलों का आश्रय लेकर आज्ञाकारी बने रहे।
तात्पर्य
प्रह्लाद महाराज जैसा शुद्ध भक्त परिस्थितिवश अनेक प्रकार की यातनाएँ दिये जाने पर भी कभी भी भगवान् की शरण छोडक़र अन्य किसी की शरण ग्रहण नहीं करता। शुद्ध भक्त कभी भी भगवान् की कृपा के विरुद्ध शिकायत नहीं करता। इसके ज्वलन्त उदाहरण प्रह्लाद महाराज हैं। यदि हम उनके जीवन का अवलोकन करें तो हम देख सकते हैं कि यद्यपि उनके अपने ही पिता हिरण्यकशिपु ने उन्हें बहुत कठोर कष्ट दिए थे तो भी वे भगवान् के ध्यान से तनिक भी विचलित नहीं हुए। बलि महाराज अपने पितामह प्रह्लाद महाराज के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए भगवान् द्वारा दण्ड दिए जाने के बावजूद भी भगवद्भक्ति में अचल रहे।
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