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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 24: भगवान् का मत्स्यावतार  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  8.24.18 
नाहं कमण्डलावस्मिन् कृच्छ्रं वस्तुमिहोत्सहे ।
कल्पयौक: सुविपुलं यत्राहं निवसे सुखम् ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; अहम्—मैं; कमण्डलौ—जलपात्र में; अस्मिन्—इस; कृच्छ्रम्—बड़ी कठिनाई से; वस्तुम्—रहने के लिए; इह— यहाँ; उत्सहे—पसन्द करती हूँ; कल्पय—जरा सोचो; ओक:—रहने का स्थान; सु-विपुलम्—अधिक विस्तृत; यत्र—जहाँ; अहम्—मैं; निवसे—रह सकूँ; सुखम्—सुखपूर्वक ।.
 
अनुवाद
 
 “हे मेरे प्रिय राजा! मैं इस जलपात्र में इतनी कठिनाई से रहना पसन्द नहीं करती हूँ। अतएव कृपा करके इससे अच्छा जलाशय ढूँढें जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ।”
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥