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श्लोक 8.24.18  |
नाहं कमण्डलावस्मिन् कृच्छ्रं वस्तुमिहोत्सहे ।
कल्पयौक: सुविपुलं यत्राहं निवसे सुखम् ॥ १८ ॥ |
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शब्दार्थ |
न—नहीं; अहम्—मैं; कमण्डलौ—जलपात्र में; अस्मिन्—इस; कृच्छ्रम्—बड़ी कठिनाई से; वस्तुम्—रहने के लिए; इह— यहाँ; उत्सहे—पसन्द करती हूँ; कल्पय—जरा सोचो; ओक:—रहने का स्थान; सु-विपुलम्—अधिक विस्तृत; यत्र—जहाँ; अहम्—मैं; निवसे—रह सकूँ; सुखम्—सुखपूर्वक ।. |
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अनुवाद |
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“हे मेरे प्रिय राजा! मैं इस जलपात्र में इतनी कठिनाई से रहना पसन्द नहीं करती हूँ। अतएव कृपा करके इससे अच्छा जलाशय ढूँढें जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूँ।” |
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