आजकल ऐसी बहुत सी योग की पाठशालाएँ हैं, जो लोगों को योग के अभ्यास से काम तथा लोभ विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। अतएव लोग तथाकथित योग अभ्यास के लिए अत्यन्त लालायित रहते हैं। किन्तु योग की वास्तविक विधि यहाँ पर वर्णित है। जैसाकि अधिकृत रूप में श्रीमद्भागवत (१२.१३.१) में कहा गया है—ध्यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिन:— योगी वह है, जो भगवान् के चरणकमलों का सदैव ध्यान करता है। इसी की पुष्टि ब्रह्म-संहिता (५.३८) में भी हुई है— प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्त: सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति। यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ “मैं आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो साक्षात् श्यामसुन्दर या कृष्ण हैं, जिनके गुण अचिन्त्य एवं असंख्य हैं, जिन्हें शुद्ध भक्त अपने हृदयों में प्रेम रूपी अञ्जन लगी हुई भक्तिमयी आँखों से देखते हैं।” भक्तियोगी श्यामसुन्दर को—श्याम वर्ण वाले सुन्दर कृष्ण को—निरन्तर देखता है। चूँकि गजेन्द्र अपने को सामान्य पशु समझ रहा था अतएव उसने अपने आपको भगवान् का दर्शन पाने के लिए अयोग्य समझा। विनयवश उसने सोचा कि वह योग का अभ्यास नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में, भला ऐसे लोग जो देहात्मबुद्धि के कारण पशुओं के समान हैं और जिनकी चेतना शुद्ध नहीं है योग का अभ्यास कैसे कर सकते हैं? वर्तमान काल में जिन लोगों की इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, जिन्हें दर्शन का ज्ञान नहीं है और जो धर्म के सिद्धान्तों या विधि-विधानों का पालन नहीं करते, वे भी योगी होने का अभिनय करते हैं। योग अभ्यास में यह सबसे बड़ी विडम्बना है। |