गन्धर्व लोक में हूहू नाम का एक राजा रहता था। एक बार जब वह स्त्रियों के साथ जल-क्रीड़ा कर रहा था, तो उसने स्नान करते हुए देवल ऋषि का पाँव खींच लिया। इस पर ऋषि अत्यन्त क्रुद्ध हो गये और उसे तुरन्त घडिय़ाल बनने का शाप दे डाला। जब हूहू को इस तरह शाप मिल गया तो वह अत्यन्त दुखी हुआ और उसने ऋषि से क्षमा माँगी। ऋषि को दया आ गई; अतएव उन्होंने वर दिया कि जब गजेन्द्र का उद्धार भगवान् द्वारा होगा तो वह मुक्त हो जायेगा। इस तरह जब नारायण ने घडिय़ाल को मार डाला तो उसका उद्धार हो गया। भगवान् की कृपा से जब गजेन्द्र वैकुण्ठ में भगवान् का पार्षद बना तो उसे चार हाथ मिल गये। यह उपलब्धि सारूप्य मुक्ति कहलाती है—नारायण के ही समान आध्यात्मिक शरीर प्राप्त करने की मुक्ति। यह गजेन्द्र पूर्व-जन्म में भगवान् विष्णु का महान् भक्त रहा था। उसका नाम इन्द्रद्युम्न था और वह तामिल देश का राजा था। वैदिक सिद्धान्तों का पालन करते हुए इस राजा ने गृहस्थ-जीवन त्याग दिया और वह मलयाचल पर्वत में एक छोटी सी कुटी बना कर मौन भाव से भगवान् की सदैव पूजा करने लगा। एक बार अगस्त्य ऋषि अपने अनेक शिष्यों समेत इन्द्रद्युम्न के आश्रम पधारे, किन्तु भगवान् के ध्यान में तल्लीन रहने के कारण वह राजा उनका उचित सत्कार न कर सका। अतएव ऋषि अत्यन्त क्रुद्ध हो गये और उन्होंने राजा को आलसी हाथी बनने का शाप दे डाला। इस शाप के अनुसार राजा ने हाथी के रूप में जन्म लिया और वह भक्ति के अपने पहले सारे कार्यों को भूल गया। तो भी अपने हाथी जन्म में, जब घडिय़ाल ने उस पर घोर आक्रमण किया, तो उसे अपना भक्ति-पूर्ण पूर्वजीवन याद आया और उस जीवन में उसने जो स्तुति सीखी थी उसका स्मरण किया। इस स्तुति के कारण उसे पुन: भगवत्कृपा प्राप्त हो गई। इस तरह तुरन्त उसका उद्धार हो गया और वह भगवान् का एक चतुर्भुज पार्षद बन गया। श्री शुकदेव गोस्वामी ने इस अध्याय की समाप्ति हाथी के सौभाग्य-वर्णन के साथ की है। उनका कथन है कि गजेन्द्र-मोक्ष की कथा सुनने से मनुष्य को भी उद्धार का अवसर प्राप्त हो सकता है। शुकदेव स्वामी इसका स्पष्टता-पूर्ण वर्णन करते हैं और इस प्रकार अध्याय समाप्त हो जाता है। |